भोर हुई,
वो देखो चाँद छिपने लगा,
कैसा विरोधाभास प्रकृति का,
एक कृति में।
अक्सर ऐसे विरोधाभास,
मिल जाते हैं आस-पास,
ख़ुद को अहिंसा का पुजारी बताने वाले नेताजी,
अपने ही वोटरों का लहू पीते हैं शौक से,
और जो बनते हैं शरीफों के सरताज,
उन्हीं के इशारे पर होते हैं दंगा फसाद,
कहाँ तक कोई विरोधाभास की व्याख्या करे,
एक लेखक जिसको शब्द नहीं मिले,
लिख दी एक कविता,
शीर्षक 'विरोधाभास'
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें