आज जबकि सब कुछ सीमाओं में बंधा हुआ है, एक आकाश ही है जो हमारी कल्पनाओं को पर लगाता है। इस खुले आसमान में उड़ान भरने के लिए आपका स्वागत है।
शनिवार, 20 फ़रवरी 2010
कुछ ढूंढ़ता है दिल..
कहीं खो गए हैं वो पल ढूंढ़ता हूँ।
धड़कता नहीं अब मेरा दिल भी शायद,
मैं अब धड़कनों की हलचल ढूंढ़ता हूँ।
संवारा था जिसको तूने जतन से,
वही रेत का मैं महल ढूंढ़ता हूँ।
कहाँ से थी आई, कहाँ को गयी तुम,
इन्हीं कुछ सवालों का हल ढूंढ़ता हूँ।
बताओ 'विनीत' वो फिर कब मिलेंगे,
बड़ी शिद्दत से आजकल ढूंढ़ता हूँ।
इशारों की बात
वो चांदनी रात और तारों की बात।
वक़्त के सफे पलट रहा हूँ आज,
कहीं खो सी गयी है यारों की बात।
डूबा है ये नशे में, बदगुमान है,
कैसे सुनेगा दिल ये हजारों की बात।
दोस्तों की भीड़ में कुचला गया हूँ मैं,
करिए ना अब खुदाया सहारों की बात।
जुबान नहीं सिर्फ इनके कान होते हैं,
सुनी है क्या किसी ने दीवारों की बात।
बुधवार, 17 फ़रवरी 2010
अब तो हमें जाना पड़ेगा....भाग-2
तूझे ऐ जिन्दगी हम दूर से पहचान लेते हैं।
फिराक गोरखपुरी साहब ने क्या खूबसूरत शेर लिखा है। जिन्दगी की हर आहट आदमी पहचान ही जाता है। हमने भी ये आहट पहचान ली थी बीएचयू आने से पहले। यहाँ पर मैंने कुछ महीने बड़ी ही खुशदिली से जिये हैं। मेरे सभी सहपाठी निहायत ही अच्छे साबित हुए। हर किसी ने अपनी अलग पहचान बनाई। आज डिपार्टमेंट जाना ख़ुशी देता है। शायद ये इसलिए भी है कि कुछ दिनों बाद ये बेफिक्री के दिन हवा हो जायेंगे। आज हम साथ-२ टिफिन बांटते हें ( उसमें हमारे एक खास दोस्त का हिस्सा सबसे बड़ा होता है, माफ़ करना यार )। अस्सी घाट कई बार हमसे गुलज़ार हुआ है। वीटी की चाय की दुकान पर जो चुस्कियां हम लेते हैं उसका मुकाबला कोई 5 स्टार होटल की चाय क्या करेगी?
रविवार, 14 फ़रवरी 2010
वक्त को किसने रोका है?
वक्त को किस ने रोका है,
दरिया में बहते पानी को किसने सोखा है,
मंजिल पर जाते राही को किसने रोका है,
मन को विचरित करने में भी कोई बाधा है,
क्या स्याम की राधा भी आधा है,
अगर ऐसा नहीं जग में , तो भला वक्त की चीत्कार क्यों?
आने वाले विरह वेदना से अभी तड़पने की चाहत क्यों,
विनीत तुम तो हो भविष्य वक्ता फिर , तुम में ये अधीर अकारत क्यों,
एक तुम से अनुरोध है, प्रीतम का बिरोध है,
फिर भी बात सुनाता हूँ , आग्रह किये जाता हूँ,
वक्त को यू गुजर जाने दो, भीम की चाए बिछड़ जाने दो,
क्योंकि नाश ,सृजन का द्वार है
बिछुदन के बाद ही मिलन है ,
शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010
अब तो हमें जाना पड़ेगा...भाग - 1
आजकल वक़्त कुछ जयादा ही तेज चल रहा है। बस कुछ दिन और....बस कुछ दिन और बाकी हैं इस शहर को छोड़कर जाने में। अच्छा लगा यहाँ पर आकर। दुनियादारी की भी थोड़ी-बहुत समझ आ गयी यारी के साथ। अब कुछ महीने ही तो बचे हैं जब मैं एक छात्र न रहकर देश का एक जिम्मेदार नागरिक बन जाऊंगा। कुछ ज्यादा ही तेज चाल हो गयी है समय की। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में पढने का सपना देखा था, पूरा हो गया। १६ जुलाई २००८ के विनीत और आज के विनीत में क्या फर्क आया और क्या शेष रहा ये तो मेरे आस पास रहने वाले लोग जानें। मेरे लिए तो दुनिया कुछ ज्यादा ही बदल गयी.....सपनों से भी ज्यादा।
हाँ...तो बात हो रही थी इस शहर को छोड़कर जाने की। इस शहर ने केवल मुझे ही अपने में नहीं बसाया, ये शहर भी मेरे अन्दर कहीं बस गया है। ऐसा सबके साथ होता है, हर इंसान के साथ। इस शहर ने जो भी मुझे दिया उसको एक नज्म में पिरोने की कोशिश कर रहा हूँ। उम्मीद है आप सबके सामने कल तक ला पाउँगा।
अब भीम की चाय भी मिलनी मुश्किल होगी। चाय तो मिलेगी ही भीम के दूकान से न सही किसी और के दूकान से, मगर वो दोस्त कहीं छूट जायेंगे जो आज साथ में चाय की चुस्कियां लेते हैं। चलो दोस्त भी मिल जायेंगे पर कुछ जाने पहचाने चेहरे, कुछ खास दोस्तों की कमी तो खलेगी ही...कुछ दिनों तक। कुछ और दोस्त भी शामिल हुए हैं इस जमात में। मुझसे तजुर्बे में एक साल पीछे हैं इसीलिए उनको हम जुनिअर्स कहते हैं। मस्तमौला हैं सबके सब, एक से बढ़कर एक। उनके साथ भी वक़्त बिताने में अच्छा लगता है...जानते हैं क्यों...वो मेरी कोई भी बात जल्दी काट नहीं सकते...बेचारे जुनिअर्स जो ठहरे। और अच्छे भी बहुत हैं। बाकी बातें बाद में दोस्तों क्योंकि अभी खाना भी खाना है, लिखने का बहुत मन कर रहा है इसीलिए फिर मिलते हैं.......
कुछ याद आया...
अक्स कोई और होता है शख्स कोई और।
कहाँ गया वो भोलापन, वो सादगी, मासूमियत
कहाँ गए वो लोग जिनसे मिलती थी अपनी तबीयत
वो छोटा सा संसार मेरा, कहाँ गया वो प्यार मेरा
इन सवालों के जवाब कुदरत ये कहके देती है,
वो वक़्त कोई और था ये वक़्त कोई और।
जाने कहाँ गया वो गांव, वो गलियां,वो रास्ते,
गढ़ती थी कहानी दादीमाँ रोज मेरे वास्ते,
वो दोस्त मेरे गए कहाँ, जिनके बिन सूना था जहां,
इन सवालों के जवाब हसरत ये कहके देती है,
वो गांव कोई और था ये शहर कोई और।
कहाँ गया वो रूठना , वो मान जाना, मुस्कुराना
कहाँ गयी वो प्यारी सूरत दिल था जिसका दीवाना,
जाने कहाँ गया वो दौर, दिखता न था कोई और,
इन सवालों के जवाब चाहत ये कहके देती है,
वो धडकनें कोई और थीं, और दिल भी कोई और।
अब जब भी आईने में खुद को देखता हूँ,
अक्स कोई और होता है शख्स कोई और।