गुरुवार, 5 नवंबर 2009

कुछ सपने... कुछ हकीक़त

कुछ सपने सिर्फ़ टूटने का लिए होते हैं। पर क्या करें! आँखें हैं तो सपने तो देखेंगी ही। अब......इस डर से कम से कम मैं तो अपनी आंखों को सपने देखने से मना नही कर सकता। अरे दोस्त... इतना तो सोचिये हम सपने में ही क्या क्या नही पा लेते। अच्छा छोड़िये, माना कि नींद में आने वाले सपनों पर आपका बस नहीं चलता, जागती आंखों से भी तो आप ख्वाब देख सकते हैं। फिर देखिये न वो सपना....जो आपके लिए सपना ही रह गया।

ज़िन्दगी भी तो एक ख्वाब ही है...इस देश के करोड़ों लोगों के लिए, जो पल पल घुट-घुट कर मर रहे हैं। वो भी सपना ही देखते हैं..दो जून की रोटी का, तन पर कपड़े का और सर पर एक ऐसी छत का जिससे बरसात का पानी न टपकता हो। सपना देखते हैं वो, अपने बच्चों की अच्छी परवरिश का, उनके अच्छे भविष्य का...

सपना ही तो देखती हैं इस देश की लाखों बच्चियां....पहले तो इस दुनिया में आने का, क्योंकि लाखों बच्चियाँ तो इस देश की ज़मीन पर कदम ही नहीं रख पाती। क्या करें बेचारी ......इस देश के लोग देवी की पूजा कर सकते हैं, उसे अपनी बेटी नहीं बना सकते। सपना ही तो देखती हैं यहाँ की लाखों बच्चियां....अपने भाईयों के साथ स्कूल जाने का, उनके साथ खेलने का, खुश होने का...पर क्या करें...चौका भी तो संभालना पड़ता है, गुड़ियों से खेलने की उम्र में। अन्नपूर्णा जो ठहरीं... इतना कर्तव्य तो निभाना ही पड़ता है।

सपना ही तो देखती हैं इस देश की लड़कियां और औरतें.... रात को काम के बाद सुरक्षित घर पहुँचने का, कहीं भी अकेले आने जाने का, बराबरी का, ख़ुद पर हुए जुल्म के ख़िलाफ़ आवाज उठाने का...कुल मिलाकर मां होते हुए भी मां होने का....

चलो यार, अभी कुछ देर बाद इसमे और लोगों के सपने जोडूंगा, फिलहाल तो चलता हूँ। क्या कहा?..कहाँ?... अरे भाई! सपने देखने!!!

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