बुधवार, 31 मार्च 2010

सिसकियाँ

अपनी तो बाकी युहीं गुज़र जायेगी,
ना सही कोई, तन्हाई साथ निभाएगी,
अपने जीने की रकम युही अदा करेंगे,
सिसक लेंगे चुपके से बेजान रातों में.

गुरुवार, 25 मार्च 2010

What are we!!!!!

What are we.  This damn question is haunting me ever since i landed up here.  The soul thing that's been the USP of this department is criticizing.  All we do is to blame others for our fault/inefficiency.  I mean we are future journalist, as far as concerned, then why not we do what we are supposed to.  There are  lots of unwanted things going on around us, towards which we can draw attention of the society.

Take for example, felling of trees inside B.H.U campus.  During past few months several trees have been chopped down in order to build up new structures.  All this being done under the banner of so called DEVELOPMENT.  Why developing on the cost of such valuable asset.

Another thing that can be brought up is the quality of education that's been served in this esteemed institution.  Most of the departments lack even proper structure to carry on with their specificities.  All they have is a bunch of students, sometimes insufficient faculty and rotten benches.  Student come in this prestigious university and what they get here is a long and tiring lesson of patience. Over the time period of their courses they become master in the art of saying " arrey sab chalta hai yaar, hone do jo ho raha hai, hume kya hai degree lo aur chalo." This very thing they carry throughout their lives wherever they go.


Leave aside them, they are common people. Why in the world we stopped questioning things.  I mean thats the part of our job right. I ask all my batch mates and seniors to wake up and do what we are entitled for.

सोमवार, 22 मार्च 2010

मंज़र

निगाहें बहुत  देर एक मंज़र पे ठहरी रही,
पलके जो झपकी ज़रा सी वो मंज़र कहीं नहीं,
कौन कहता है जो चाहो वो तुम्हे मिल जाएगा,
हसीं लम्हा ये ज़िन्दगी का सभी को मयस्सर नहीं.

चिराग तले अँधेरा



एक कहावत जो माँ से सुनी थी आज उसके अस्तित्व को महसूस किया है. इससे चिराग की बदकिस्मती कहिये या उसकी नाकामी.  वो चिराग जो अपनी सीमित शक्ति के बावजूद दूसरों को रास्ता दिखता है अपने अन्दर एक घना अँधेरा छुपाये होता है. ऐसा ही कुछ मै अपने आसपास देख सकता हूँ.  एक विभाग जो की अपने मूल रूप में सम्प्रेषण का घर है, वहां स्वयं सम्प्रेषण नामक वस्तु का आभाव है.  कोई किसीसे कुछ बोल नहीं सकता क्योकि विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता यहाँ लागू नहीं होती.  आप नहीं जान सकते की ऐसा क्यूँ है.  हाँ अगर आपने धरा के विपरीत जाने की कोशिश की तो मूह की खानी पड़ सकती है.  सारा सम्प्रेषण एक्मार्गीय है. खैर जैसे इस दुनिया की यानि की सम्प्रेषण की दुनिया की बाकि समस्याएँ दूर हुई है इस समस्या का भी कोई न कोई हल तो अवश्य होगा. जरुरत है उस चिराग को चिराग दिखाने की. 

शनिवार, 20 मार्च 2010

कोयल और बौर

कब चुपके से पतझड़ की ओट लेकर गरमी घर तक आ गयी पता ही नहीं चला. हरे भरे पेड़ पलक झपकते ही बूढ़े नज़र आने लगे.   सर्दियों की कुनकुनी धूप में हौले से एक जलन शामिल हो गयी है.  इस बदलते मौसम ने जहां कुछ चीजों को छीना वहीँ कुछ तोहफे  भी दिए हैं.  इन सौगातों में आम की बौर की महक और कोयल की रूहानी आवाज़ सबसे कीमती है.  अपने प्यार को तलाशती कोयल बौरों की महक को उसकी खुशबू समझ लेती है.  इस धोखे में वो बेचारी सारा वक़्त तपती दोपहरिया में उसे पुकारती फिरती है. प्यार की ये पुकार सारे वातावरण को रूमानी बना देती है.  कोयल की बेचैन खोज ने बौरों को तो नया रूप दिया पर वो खुद अकेली रह गयी.  साल दर साल भटकते रहने पर भी उसका प्यार मुक्कम्मल न हो सका. प्यार की अक्सर यही परिणति होती है, वो वफ़ा और कुर्बानी की आंच में तप के भी बजाय कुंदन होने के राख हो जाता है. 

गुरुवार, 18 मार्च 2010

ये जिंदगी...

जिंदगी ने गम के सिवा और क्या दिया?
एक दिल दिया और वो भी तनहा दिया।

मुद्दतें बीत गयी थीं तुझे देखे ख़ुशी,
तुमने यूँ अचानक आकर चौंका दिया।

किससे करूँ शिकायत बर्बाद होने पर,
हमने ही तो कातिलों को मौका दिया।

चारों तरफ तो मेरे दोस्तों की भीड़ थी,
फिर कौन था वो जिसने मुझे धोखा दिया?


शिकवा कीजियेगा कि बेवफा हूँ मैं,
अदाएं थीं आपकी, जिनको लौटा दिया।


अफ़सोस कर 'विनीत' किस्मत का खेल है,
लेते चलो जिन्दगी ने तुम्हे जितना दिया.

अब तो हमें जाना पड़ेगा- भाग 3

कुछ छूट रहा है..... वो सीढ़ी का कोना जिसे हम अपने दोस्तों के साथ बांटते हैं। डिपार्टमेंट के गेट के सामने की वो छोटी सी पुलिया, जिस पर बैठकर हम हंसी-ठिठोली करते रहते हैं, जहाँ हमने अपने दोस्तों के साथ इस विश्वविद्यालय की पहली होली खेली थी। वो अस्सी घाट, जहाँ की सीढियों पर बैठकर हम घंटो बातें करते रहते है। वो लंच ऑवर, जब चार टिफिन्स को चौदह लोग शेयर करते हैं। वो एक-दूसरे की टांग खींचना, जिसका शायद ही कोई बुरा मानता है, और मान भी जाए तो बाद में सब नॉर्मल। वो हज़ारों मनगढ़ंत किस्से, जो अचानक से किसी को हंसाने के लिए गढ़े जाते हैं। वो शिकायती नज़रें, जो पूछती हैं, मैं ही क्यों? वो सेंट्रल laibrary , जहां हम कभी-कभी ही जाते हैं। वो कहानियां, जो हॉस्टल में बनती और बिगड़ती रहती हैं। वो हॉस्टल, जो दो साल के लिए हमारा आशियाना, हमारी दुनिया रही। वो बाथरूम, जहाँ क्लास जाने की जल्दी में दो, और कभी-कभी तीन लोग नहाते हैं। वो लोग जिन्हें हम 'सर' कहते हैं और वो लोग जो हमें 'सर' कहते हैं। वो जिंदगी, जो हम अभी जी रहे हैं। सबसे ज्यादा वो लोग, वो दोस्त जिन्होंने इन दो सालों के सफ़र को इतना छोटा और हसीन बना दिया.

शनिवार, 13 मार्च 2010

तिनका-तिनका



तिनका तिनका करके मैंने थोड़े अरमान जुटाए थे ,
आहिस्ता आहिस्ता पहुचुँगा मैं ,
ऐसी उम्मीदों के साए थे ,
अब हर तिनका वो जिंदगी की आग में जलता है, 
बूँद बूँद मेरी आँखों से हर लम्हा कुछ रिसता है.

बुधवार, 3 मार्च 2010

होली तो अब हो ली....

होली आई भी और चली भी गयी। कुछ इसके रंग में रंग गए तो कुछ ने इसके साथ आँखमिचौली खेली। खेला तो सभी ने लेकिन मुझे कुछ कमी जरूर खटकती रही। अब ये मत पूछिये किस चीज की, बस खटक रही थी। इस बार होली पर मैं अपने गाँव गया था। तमन्ना थी कि दोस्तों के साथ इस बार की होली मनाऊं। काफी अरसे बाद गाँव में होली खेलने का मौका मिला था। दोस्त आये भी लेकिन दो चार ही। पूरे गाँव में सन्नाटा पसरा हुआ था। यकीन ही नहीं होता था कि ये वही गाँव की गलियाँ हैं जो कभी गुलजार रहा करती थीं। मेरे वो यार, जिनसे मिलने मैं गया था कहीं नज़र नहीं आ रहे थे। सब मजबूर थे, सब तनहा थे।
मुझे याद है कि होली के मौके पर हमारे गाँव में गीत गाये जाते थे। इस बार भी गाये गए लेकिन वो मज़ा नहीं आया जो चन्द साल पहले आया था। होली भी अब प्रोफेशनल हो गयी थी, रिश्तों की तरह। ये वही गाँव था जहां लोग आपसी भेदभाव भुलाकर प्रेम से हर त्यौहार मनाते थे। अब तो होली भी हैप्पी होली हो गयी। अपने हिस्से के अबीर गुलाल भी इस गाँव ने खानदानी झगड़ों में उड़ा दिए। होली के लिए तो कुछ बचाया ही नहीं। ये कहानी सिर्फ एक गाँव की नहीं है, बल्कि इस देश के लाखों गांवों की है। हमने अपने त्योहारों के लिए क्या बचाया है, कुछ नहीं। लोग नज़र नहीं आते क्योंकि सब अपनी नौकरियों में मस्त है और कौन चाहेगा कि एक दिन की छुट्टी के बदले इस पागलपन में हिस्सा लेना। अब तो कनेक्ट करने का जिम्मा भी नोकिया ने ले लिया है, उसका कॉपीराईट है भाई। बच्चे भी अब खेले तो किसके साथ, सभी व्यस्त हैं। देवदास पारो के साथ और कन्हैया गोपी के साथ खेल लें, वही बहुत है।
अब होली की मस्ती बीते हुए ज़माने की बात लगती है। पुराने लोगों के साथ पुरानी वाली होली भी चली गयी। अब गांवों में भी फागुन आकर चुपके से लौट जाता है। सावन में पेड़ों की डालियाँ झूले का इंतज़ार ही करती रह जाती हैं। अब गन्ने भी गुड के लिए नहीं, चीनी के लिए बोये जाते हैं। अब गांवों में भी लोगो की इज्ज़त उनकी एज नहीं बल्कि पैकेज देखकर की जाती है। उम्मीद है कि आने वाली होली फिर से सबको एक धागे में बाँध दे। तब तक इंतज़ार....