बुधवार, 28 नवंबर 2012

नश्तर

वह बहुत देर तक अविनाश सामने पड़ी टेबल पर अपना सर पटकता रहा।  पर अगर इतना भर करने से अगर सच बदल जाता तो आज दुनिया की सूरत ही कुछ और होती। उसे समझ ही नहीं आ रहा था की यह उसके साथ ही क्यों हो रहा है। अच्छी भली ज़िन्दगी चल रही थी, जाने कहाँ से यह घटिया सच निकलके उसकी आँखों के सामने आ गया था। कमबख्त पड़ा रहता वहीं कोने में तो क्या बिगड़ जाता। रोज़ वह घड़ी ही देखता रहता था की कैसे छह बजे और वह उड़ के घर पहुँच जाए।  दिन भर सुमन से दूर रहने के बाद उसे घबराहट होने लगती है। आज वही घबराहट घुटन में कैसे बदल गयी है।  क्यों उसका घर जाने का मन नहीं हो रहा है। कहीं भाग के भी नहीं जा सकता।  सिर्फ एक कागज़ के टुकड़े ने कैसे उसकी दुनिया खत्म कर दी।  सुमन ने इतना बड़ा फैसला अकेले कैसे ले लिया।  कहाँ से आई उसमे इतनी ताक़त की वह अकेले ही उन दोनों के प्यार के स्पंदन का गला घोंट दे।  एक सांस लेती ख़ुशी को पलभर में उसने काली रात का हिस्सा कर दिया।  अफ़सोस का एक कतरा आंसू भी उसकी सुखी आँखों में नहीं था। वो चेहरा जिसकी एक झलक ज़िन्दगी को रूहानी कर देती थी, उस चेहरे की याद भी अब अविनाश के सीने में नश्तर सी चुभ रही थी।  वह सांस भी नहीं ले पा रहा था।




* image courtesy Google