दशहरा मुब्बारक................................
एक बार कक्षा में मैंने छात्रावास को घर से दूर एक घर कहा था ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,, शायद कुछ लोगों को याद हो खासकर छात्रावास में रहने वालों को । ये सिर्फ मेरा कहना ही नहीं मानना भी था और अभी भी मानता हूं । मुझे याद hai shuruwaat के दिनों में जब मुझे हॉस्टल नहीं मिला था तब मैं अमित और विनीत के साथ रहता था अपने '' स्वतंत्रता कक्ष '' में । [शायद इस बात को सिर्फ बिरला वाले ही समझ सकते हैं ]
एक घर को छोड़कर दुसरे घर को सबने अपना बनाया । मेस में घंटो बात करते हुए खाना खाने का मज़ा शायद ही किसी पंच सितारे होटल में आये क्योंकि वहां सब कुछ मिल सकता है मगर वो साथ नहीं जो एक दुसरे के टांग खीचने में मिलता था। मगर अब हम एक कमरे में बैठ अकेले खाने को मजबूर हैं । अभी kuchh दिन pehle मैं हॉस्टल गया tha .हमारे जूनियर वहां रह rahe हैं । मैं उनके साथ वहां दो दिन रहा । शायद ही इन दो दिनों में कोई भी ऐसा मौका हो जब मैंने तुमलोगों को मिस ना किया हो । कमरा तो २२५ ही था मगर पता नहीं क्यों हॉस्टल बेगाना सा लग रहा था और कैम्पस विराना सा । विनीत ने ठीक ही कहा है कि अब वीटी कि वो चाय कि चुस्कियों का मजा कहीं नहीं मिल सकता है। चाय तो हम सभी अब भी पीते हैं मगर चाय का वो स्वाद जो वहां था अब कहीं नहीं। उन शर्तों को कौन भूल सकता है जो धीरज के चाय पिलाने पे लगते थे तो अमित के समौसा खिलाने पर [ क्षमा करना दोस्तों तुम लोगों का नाम मैंने किसी पूर्वाग्रह में आकर नहीं लिया है ] लगते थे और उन शर्तों को जीतने वाला कोई विरले ही थे। दूकान पर जाने से पहले ये बहस लाज़मी था कि आज पैसे कौन दे रहा है, मगर आज हालात ये है कि कोई है नहीं जिन्हें चाय पिलाया जाए या फिर किसी से समौसा खिलाने को कहा जाए। अब ना वो गलियाँ हैं ना ही वो राही हैं ।
ये जानकार काफी अच्छा लगता है कि हम में से बहुतों को नौकरी मिल गयी है और वो अपने काम में काफी व्यस्त हैं और हाँ इसी व्यस्तता का इंतज़ार हम सभी पिछले दो सालों से करते आ रहे थे। जिन लोगों को अभी तक नौकरी नहीं मिली है उन्हें भी आने वाले कुछ समय में मिल ही जाएगी और मैं भी इसी के इंतज़ार में हूं। ये काफी अछि बात है कि आज भी हम में से काफी एक दुसरे के सुख दुःख का साथी है और आगे भी रहेगा। हाँ अब ये जरूर है कि निर्मल सर का वो क्लास नहीं रहेगा जिसमे कितने ही message का aadan pradan हो jaata था। नोवेल तो हम अब भी पढ़ते हैं मगर कोई भी निर्मल वर्मा का '' वे दिन '' को शायद ही कोई भूल पाए आखिर पढने कि कला हमने वहीँ से सीखी थी। फिल्में तो हमने हजारों देखि हैं मगर फिल्म देखने कि कला भी आखिर यहीं सीखी है।
अच्छा दोस्तों मैं अभी जा रहा हूं मगर मैं अपने इस लेख को किसी और दिन जरूर पूरा करूँगा ...............................