गुरुवार, 2 दिसंबर 2010

तेरे बिना ये महफ़िल कुछ उदास लग रही है,
ला पिला दे साकिया अब प्यास लग रही हैं.

लगता हैं गुजरे हैं वो अभी-अभी इधर से,
शहर की गलियां देखिये कुछ ख़ास लग रही हैं.

गुरुवार, 25 नवंबर 2010

पड़ाव

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मंगलवार, 9 नवंबर 2010

115 glorious years of X-RAYS

Hundred and fifteen years ago when accidentally William Conrad Roentgen discovered some unknown radiations, he wouldn't have thought for a moment then of the explicit discovery he'd made.  He himself was so unaware of their significance  that he gave them the name X- Rays.  Years later it's importance was realized and it proved to be a revolution for mankind.  The ability of X-Rays to penetrate through substances and reveal their images has worked wonders for humanity.  Be it the revelation of inner structure of various crystals or the area of diagnostic radiography, it has proved to be a boon.  Despite of the emergence of various new and more advanced and sophisticated technologies X-Rays are still firmly holding their ground.  We are very grateful to Roentgen for his serendipity and the gift he gave us.

P.S. - Though now is the time to find out a better version of x-Rays to look into the souls of human beings.

शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2010

बिल्लियाँ

जो चले गए !!!!

पिछले कुछ दिनों से हमारे घर में एक बिल्ली और उसके प्यारे से नन्हे से बच्चे ने डेरा डाल रखा है. कुछ महीने पहले भी वह बिल्ली अपने दो छोटे बच्चों के साथ आई थी.  तब माँ ने उनका बहुत ख्याल रखा था. उन्हें दिन में दो से तीन बार खाना देना आदि का माँ काफी ख्याल रखती थीं.  वो दोनों बच्चे थे भी बड़े चंचल और नटखट, दिन भर इधर से उधर फुदकते रहते थे.  धीरे-धीरे हमारी भी ऐसी आदत बन गयी थी कि उन्हें देखे बिना दिन पूरा नहीं होता था.  वो भी बड़े समझदार थे और हम लोगों को देखते ही अपनी कारगुजारियां शुरू कर देते थे.  गमले में पड़ी मिटटी खोद देना, पेड़ों पे चढ़ जाना, आपस में उठा-पटक करके वो हमारा ध्यान आकर्षित करने कि कोशिश किया करते थे.  उनकी माँ भी हमसे निश्चिंत होके धूप सका करती थी.  अभी हमारा रिश्ता खिल ही रहा था कि उसे किसी कि नज़र लग गयी और वो दोनों बच्चे एक-एक करके गायब हो गए.  हमने खोजने की बहुत कोशिश की पर वह नहीं मिले.  फिर एक दिन हमारे यहाँ काम करने वाली ने बाते की उसने उनमे से एक की लाश पीछे के मैदान में देखी है.  दूसरे का कुछ पता नहीं चला.  अभी हमारे मन पे पड़ी उनकी छाप हल्की हो ही रही थी की एक सुबह माँ ने एकदम से हमे उठाया और बोला की बिल्ली एक नए बच्चे को लेकर आई है.  माँ की ख़ुशी देखते ही बनती थी.  ये बच्चा पहले वाले दोनों बच्चों के मिश्रण जैसा है.  इसका फुर पे मानो उन दोनों की परछाईं पड़ी थी.  मासूम से चेहरे और कौतुक भरी नज़रों से उसने आते ही माँ का दिल जीत लिया था.  माँ ने इस बार देर ना करते हुए ज्यादा सुरक्षात्मक होकर उनके लिए एक छोटे से आशियाने का निर्माण कर दिया है.  इसमें वो ठण्ड से और अन्य परेशानियों से बचे रहेंगे.  माँ ने इस बार भी अपनी जिम्मेदारियां संभल ली है.  आशा करते हैं इस बार ईश्वर उस बच्चे को सुरक्षित रखेंगे. 


नयी दस्तक 

ज़िन्दगी

ज़िन्दगी हमेशा तंग रास्तों से होकर ही नहीं गुज़रती, कई फासले ये हरे भरे मैदानों  के बीच से भी तय करती है.  कुछ पल अगर चिलचिलाती धूप में जलना पड़ता है तो अगले पल बारिश कि नरम बूँदें भी मिलती हैं.  ज़िन्दगी के सफ़र कि इस कशिश ने ही तो हमे बाँध रखा है.  रोज़मर्रा कि दौड़-धूप, खिचखिच के बीच ख़ुशी का एक हल्का नरम झोका भी माथे कि लकीरों को एक  भीनी सी मुस्कान में बदल देता है.  इस भीनी सी मुस्कराहट के लिए हमें खासी मशक्कत भी नहीं करनी होती, बस कुछ आसपास देखना होता है.  मेजों कि दराजों में, पुरानी कमीज़ कि जेब में, फाइलों के ढेर में या ऐसी ही किन्हीं जगहों में जिन्हें हमनें बेकार समझ कोने में फेंक रखा है.  इनके अलावा खुशियों के ये झोके सुबह कि झीनी सी सिहरन ओढ़े हवा के संग, भोर के स्लेटी आसमान में फूटती किरण के संग, रात कि स्याही में चमकते चाँद के संग भी आतें हैं.  प्यार भरी माँ कि वो एक नज़र, आशीर्वाद के लिए उठा पिता का हाथ, भाई-बहिन का दुलार और दोस्तों का मनुहार हमारे मुरझाये चेहरे पे जान फूंक जाते हैं.  ज़िन्दगी कि इतनी सलाहितों के बाद भी गर हम उसे दोष देते हैं तो इसमें बेचारी ज़िन्दगी का तो कोई कुसूर नहीं है.

बुधवार, 27 अक्तूबर 2010

Jina isi ka naam hai

जब रास्ते खत्म होते नज़र आते हैं
एक नया मोड़ मिल जाता है
अँधेरे की घनी चादरों के बाद
एक नया सवेरा नज़र आता है

दिल के दरवाज़े जब बंद होते हैं
एक अंजनी दस्तक सुनाई देती है
जिंदगी के वीरान होने के बाद
फिर हरयाली दिखाई देती है

जब आंखें रोने को होती हैं
एक हाथ उन्हें थम लेता है
जिंदगी से मायूस होने के बाद
एक दुआ सुनाई देती है

प्यार भरी इस दुनिया में अकेलेपन का क्या काम है
जीओ खुल के हंस के खिलखिला के
क्यूंकी जीना इसी का नाम है

रविवार, 24 अक्तूबर 2010

दिल्ली में दिल नहीं लगता

शीर्षक देख कर पड़ने वालो को अंदाज़ा लग जायेगा की ये भुत ही निजी भाव है पर मेरा मानना है की इस से कम से कम एक बार दिल्ली आने वाला तो जरूर गुजरता होगा। आज मुझे दिली में आये दो महीने हो गये है पर अब तक दिली मुझे रास नहीं ई है। हो सकता है की इससे दिल्ली वाले नाराज़ हो जये की जो सहर रोटी दे रहा है उसी की बुरे मै कर रहा हूँ पर यह सच है मुझे तो दिल्ली नहीं भाई। कुछ दिनों में दीपावली है लोग कुशिया मानाने की तयारी कर रहे है पर लगता है की मज़बूरी में। पिछले दो साल मै बनारस में था हालाँकि दीपावली को मै अल्लाहाबाद आ जाता था पर वापस जाने के बाद दोस्तों के बिच असली दीपावली मानती थी। आकांशा शर्राफ के घर का काजू की बर्फी का तो सभी को इंतजार होता था। अब सभी को होता था तो मैकैसे छूट सकता हूँ मुझे भी इंतजार होता था। बात मिठाई की नहीं बल्कि उस मस्ती की है जो दिली में कही खो गयी है। इस लिया जैसे जैसे दिवाली पास आ रही है मेरा दिल बैठता जा रहा है। वैसे भी त्योहारों पर मै बहुत उत्साही प्रविर्ती का नहीं हूँ पर पिछले दो सालोमे त्योहारों मर हँसना और कुछ हद तक मनन तो सिख लिया तक जिसे मै छह साल पहले किन्ही कारणों से भूल गया था। कम से कम डिपार्टमेंट ले जाने के बहाने ही सही त्योहरोपर अपने पाक कला का मुजायरा तो कर ही देता था। पर इस बार तो ये मौका भी छुट जायेगा। इसे ही कहते है नौकरी यानि नौकर की नहीं चलेगी मर्ज़ी। खेर दिल्ली में फिलहाल तो रहना मजबूरी है। बस इस आस से दिन गिन रहे है की मार्च के बनारस हिन्दू उनिवेर्सित्य के धिख्संत समारोह में सभी फिर से एक बार मिलेंगे।ग़ालिब को रास आयी दिल्ली की गलियाँ ,कबीर को भाई कासी हमको तो बस मिल जाये सब साथी वोह है हमारी कशी.

शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2010

यादों का एक पड़ाव...................

दशहरा मुब्बारक................................

एक बार कक्षा में मैंने छात्रावास को घर से दूर एक घर कहा था ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,, शायद कुछ लोगों को याद हो खासकर छात्रावास में रहने वालों को । ये सिर्फ मेरा कहना ही नहीं मानना भी था और अभी भी मानता हूं । मुझे याद hai shuruwaat के दिनों में जब मुझे हॉस्टल नहीं मिला था तब मैं अमित और विनीत के साथ रहता था अपने '' स्वतंत्रता कक्ष '' में । [शायद इस बात को सिर्फ बिरला वाले ही समझ सकते हैं ]

एक घर को छोड़कर दुसरे घर को सबने अपना बनाया । मेस में घंटो बात करते हुए खाना खाने का मज़ा शायद ही किसी पंच सितारे होटल में आये क्योंकि वहां सब कुछ मिल सकता है मगर वो साथ नहीं जो एक दुसरे के टांग खीचने में मिलता था। मगर अब हम एक कमरे में बैठ अकेले खाने को मजबूर हैं । अभी kuchh दिन pehle मैं हॉस्टल गया tha .हमारे जूनियर वहां रह rahe हैं । मैं उनके साथ वहां दो दिन रहा । शायद ही इन दो दिनों में कोई भी ऐसा मौका हो जब मैंने तुमलोगों को मिस ना किया हो । कमरा तो २२५ ही था मगर पता नहीं क्यों हॉस्टल बेगाना सा लग रहा था और कैम्पस विराना सा । विनीत ने ठीक ही कहा है कि अब वीटी कि वो चाय कि चुस्कियों का मजा कहीं नहीं मिल सकता है। चाय तो हम सभी अब भी पीते हैं मगर चाय का वो स्वाद जो वहां था अब कहीं नहीं। उन शर्तों को कौन भूल सकता है जो धीरज के चाय पिलाने पे लगते थे तो अमित के समौसा खिलाने पर [ क्षमा करना दोस्तों तुम लोगों का नाम मैंने किसी पूर्वाग्रह में आकर नहीं लिया है ] लगते थे और उन शर्तों को जीतने वाला कोई विरले ही थे। दूकान पर जाने से पहले ये बहस लाज़मी था कि आज पैसे कौन दे रहा है, मगर आज हालात ये है कि कोई है नहीं जिन्हें चाय पिलाया जाए या फिर किसी से समौसा खिलाने को कहा जाए। अब ना वो गलियाँ हैं ना ही वो राही हैं ।


ये जानकार काफी अच्छा लगता है कि हम में से बहुतों को नौकरी मिल गयी है और वो अपने काम में काफी व्यस्त हैं और हाँ इसी व्यस्तता का इंतज़ार हम सभी पिछले दो सालों से करते आ रहे थे। जिन लोगों को अभी तक नौकरी नहीं मिली है उन्हें भी आने वाले कुछ समय में मिल ही जाएगी और मैं भी इसी के इंतज़ार में हूं। ये काफी अछि बात है कि आज भी हम में से काफी एक दुसरे के सुख दुःख का साथी है और आगे भी रहेगा। हाँ अब ये जरूर है कि निर्मल सर का वो क्लास नहीं रहेगा जिसमे कितने ही message का aadan pradan हो jaata था। नोवेल तो हम अब भी पढ़ते हैं मगर कोई भी निर्मल वर्मा का '' वे दिन '' को शायद ही कोई भूल पाए आखिर पढने कि कला हमने वहीँ से सीखी थी। फिल्में तो हमने हजारों देखि हैं मगर फिल्म देखने कि कला भी आखिर यहीं सीखी है।


अच्छा दोस्तों मैं अभी जा रहा हूं मगर मैं अपने इस लेख को किसी और दिन जरूर पूरा करूँगा ...............................

गुरुवार, 30 सितंबर 2010

Tendulkar all set to score half century of centuries

Come October the first and the cricketing world will witness the start of another edition of test cricket’s marquee rivalry between two of the world’s best teams – India, the current world number one and Australia, the former numero one . While the cricketing world will be expecting another epic and intense battle between two of these formidable sides, all eyes will also be glued to India’s favorite cricketing son Sachin Tendulkar who is on the verge of reaching another milestone.
Tendulkar has so far scored 48 hundreds in tests – a world record. The upcoming series is therefore a perfect platform for the master batsman to take the tally of his hundred to 50. That, he has the opportunity to achieve this unprecedented feat before his home crowds makes it a much-anticipated and highly craved for wish among his fans.
Toppling records and achieving unprecedented cricketing highs have been nothing new to Tendulkar. Ever since he made his debut as a blue-eyed 16 year old teenager against Pakistan in the winter of 1989, Tendulkar has achieved many of cricket’s ‘firsts’. He has most number of ODI and test runs and centuries. He is the most capped player in test matches. He has been man of the match and man of the series on more occasion than anybody else in ODI cricket. The list of achievement is almost endless.
The stage is therefore all but set for the little genius from Mumbai to score his 50th test hundred during the course of the coming series. Tendulkar has been in prime from of late and has slammed 5 centuries in 7 test matches in the current year. The fact that Tendulkar has scored most number of his test hundreds against mighty Aussies (10) - a testament of his ability to excel against the best opposition- can only be seen as a good omen for the accomplishment of the milestone.
Let’s keep our fingers crossed and wait for the start of the series. Who knows if we get to watch him score one of these two hundreds on the very first day?

मंगलवार, 14 सितंबर 2010

याद आती है बिरला की वो गलियाँ

सुना था डेल्ही दिल वालो की है, दिली की चौड़ी सड़के मुझे तो रास नहीं आई। सोचता रहा भला ये स्थिति क्यों आई। काफी सोच बिचार कर जिन्दगी के वोए दो साल बार बार याद आ रही है। अब आप पूछेंगे की भला जिन्दगी के कौन से दो साल है जिसके बारे में मै बात कार रहा हूँ। तो मै आपको बता दूं की मै बनारस मेबिताए उन हसीं दो सालो की बात कर रहा हूँ जो मैंने बिरला हॉस्टल में बिताएँ। अब आप कहेंगे की भला बिरला और बनारस में ऐसा क्या था जो डेल्ही के क्नौघ्त प्लेस में नहीं है। और वैसे भी हर सहर की अपनी खासिअत होती है.तो बाखुदार यह बता दूं की जो मजा जो निश्चल प्यार उन तंग गलियों में था जो प्यार की दरिया गंगा बहाती है वोह डेल्ही की यमुना में कहाँ है यहाँ तो सडको के साथ दिल भी लोगो के सख्त है। यहाँ तो वीनित की तरह सपने देखने वाले है पर उसमे उसके तरह निश्चलता नहीं है बल्कि कुटिलता है, मुरली तरह लोग तुनक मिजाज है पर उसमे भी द्वेष राग है। और न जाने ऐसी ही कितनी बाते है जिसे लिखना सुरु करू तो समय और ब्लॉग दोनों कम पद जायेगा । बस एक लाइन में कहूँगा की तीनो लोक में प्यारी कशी और प्यारे वोह सब जिनका नाम मै ने नहीं लिखा पर दिल के कागज पर लिखा है।

शुक्रवार, 3 सितंबर 2010

one has to always move ahead in life!!

it has been almost 4 months we all left that campus ....the campus which gave us a different style of living....different art of talking....different attributes of doing things....smashed us wid different kind of people.....some extremely good, some bad, some unique and some frustrating....it's said that nothing is perfect in the world but for me personally it was a wholesome experience........an experience that gave me evey lesson i ought to learn at this stage of my life..........i really wud like to thank all those people who some or the other way helped me get some best and worst experiences of my life......i know every body including me r missing those fantastic days of begari...film viewing....making assignments.....birthday treats.....chai- samosa party and quote-unquote meetings........preparations for events.......partying........wandering on ghats....n offcourse i missed one............. the important one.......hostel........u ppl had extremely enjoying experience wid ur hostel too.....everyone learnt somethng....i know many of u ppl r disaapointed at ur status but ppl i can only say one thing....there are no mistakes in life..there r only lessons n experiences.......
live life fullest n never say i quit...........ruk ruk rukna na jhuk jhuk jhukna hai chalna hai chalte jana hai har ek baji ko puri himmat se jeet ke humko dikhana hai.....
move ahead in life....luv u all .......tk cr

बुधवार, 1 सितंबर 2010

Everything is Fine...

आज न जाने क्यूँ, अचानक से ब्लॉग पोस्ट करने का ख्याल आया. मैं तो इस ब्लॉग के लिए लिखना ही भूल गया था. और भी बहुत कुछ भूल गया हूँ दोस्तों, अब पहले जैसी मस्ती नहीं रही, ना ही वैसी बेफिक्री. ठीक है हर आदमी की ज़िन्दगी एक जैसी नहीं रहती पर सब कुछ इतना अचानक भी तो नहीं होना चाहिए न. ये क्या बात हुई की किसी को अचानक जन्नत से बाहर फ़ेंक दिया. 

दिल्ली में वक़्त अच्छा ही बीत रहा है. काफी दोस्त बन गए हैं, बहुत से पुराने दोस्त भी मिल गए हैं. ये सभी लोग निहायत ही अच्छे हैं. लेकिन लाख टके का सवाल ये है कि मैं वैसा ही हूँ क्या जैसा पहले था? शायद नहीं. अब इसकी चिंता नहीं होती कि मेस चलेगा कि नहीं, बल्कि इस बात की चिंता होती है कि चावल का रेट क्या है और दाल कितनी महँगी हो गयी है. अब तो वो दिन आने से रहे जब वीटी पर चाय की चुस्कियां ली जाती थी. 

तुम लोग भी कह रहे होगे कि साला जब से शुरू हुआ है रोये ही जा रहा है. यार, सच कह रहा हूँ, बड़ी तकलीफ होती है. जबसे यहाँ आया हूँ बस बनारस, बिरला हॉस्टल और बीएचयू की याद आ रही है. साला घर की उतनी याद नहीं आती. तुम सब भी महसूस कर रहे होगे. लेकिन एक बात तो है,मज़ा आ जाता है पुरानी बातें सोचकर. अमित ने पूरे दो साल मेरा असाईनमेंट टाइप किया, हर असाईनमेंट, और साला जिस चीज़ से भागता था वही करना पड़ रहा है. हाँ यार, दिन भर में करीब ३००० शब्द टाइप करने पड़ते हैं.

अब बाकी हाल-चाल बाद में. नींद आ रही है अब सोने जा रहा हूँ. बाकी सब तो ठीक है लेकिन कल सुबह ऑफिस भी जाना है. कोई क्लास तो है नहीं कि लेट हो जाओ तो चुपचाप जाकर बैठ जाओ. वैसे यहाँ भी कई बार लेट हो चूका हूँ पर बॉस भी मस्त मिले हैं, कुछ पूछते ही नहीं. बस मुस्कुरा कर गुड मोर्निंग कह दो, सब ठीक.




शनिवार, 10 जुलाई 2010

Prophecy Unleashed

Besides the fever injected by the FIFA world cup series there is a parallel yet more effective craze enthralling people around the world.  Yeah you are right its the prophecies made by the one of its kind and the very first 8-legged babaji "Paul".  Out of the 12 predictions that he made so far 11 came to be true eventually.  Now the whole world is looking at him for some more and lo and behold he predicted Spain as the favorite for the title.  How much he can hold this time we'll know on 11th of July when the ball will roll.  But the basic discussion that this phenomenon gave birth to is, that even though we boasts ourselves to be technically and scientifically superior than our ancestors,  yet to our very core we are still bounded by the fear of future.  We some how just want some one to tell us what our future holds.  Every time we go to roadside babaji or a palmist or animals like Paul which in our country our replaced by parrots picking on cards to know the outcome of our steps.  And we can't say that only the less educated and backward people are more into it, because we have examples of the so called modern well educated superior persons holding on to such things.  The thing is not that we believe in fact the truth is that deep down we know no one has the key to the future, even then we run to get some.  As big as it could be, real question is why the prophets (so called) aren't able to predict their own future and change it. The answer is they can't as they are not Bruce Almighty, they are just like us.  This is one long discussion that has been going on for decades, yet it cannot end  because of the inherent human fear of the  future.  All we can do at this time is to see what future holds for Paul baba himself, as now he faces a competitor an Indian Prophet Mani baba.


http://pranshuprashu.blogspot.com/

Summer Sleep

A lot of animals around the world follow a pattern in their life.  They either go for hibernation (winter sleep) or aestivation (summer sleep).  This helps them in rejuvenating their body organs, growth and all that will help them in their further survival.  We the humans on other side don't have any such thing.  We go for a 12 month work cycle neglecting our survival needs.  This is the major cause of various kinds of stresses, ailments and various other dysfunctions.  Then we run towards faster ways of improvement so that we can keep ourselves in the RAT race.  Its time for us to stop and take some moments off of our busy schedule and rejuvenate our inner core.  I mean take examples of the tribes that are left and are unperturbed by the outer world.  They always chalk out space for recreation, redemption and in knowing the very nature we live in.  They have better ways of fighting breakdowns we encounter everyday.  This is all because they believe in the concept of aestivation or hibernation and they follow.

http://pranshuprashu.blogspot.com/

रविवार, 2 मई 2010

वे छह घंटे

एक मई के शाम को ६ बजे से रात के बारह बजे तक का समय मेरे जीवन के सबसे हसीं पालो में है। अगर कोई मुझे फिर से ये छह घंटे दे दे और बदले में जीवन के साठ वर्ष ले ले तो मै उसे खुशी से दे दूंगा। आप सोचेंगे की आखिर इन छह घंटे में ऐसा क्या हुआ? कुछ वनारसी ये सोचेंगे की उस समय तो बनारस में आंधी आई थी और ओले पड़े थे पर जनाब भला ऐसा समय भी याद किया जाता है । मै तो बात कर रहा हूँ जन्सम्प्रेषण बिभाग में पढने वाले छात्रों का, क्लास की प्यारी आकांशा के घर गेट टूगेदर का। यह समय मेरे जीवन के सबसे हसीन पल है। इस छेह घंटे में मैंने जीवन के आठ सालो की उदासी को छोड कर दिल की गहराई से जीवन की खुशियो को जिया। यह वोह पल था जब मै अंटी से मातृत्व पाया बुवाजी से अपने घर में मिलने वाला दुलार पाया , मुझसे पहले मेरे पेटू होने की चर्चा से गुस्सा नहीं बल्कि अपने भाई बहनों ,घर में परिवार में होने वाला नुरा- कुस्ती वाला खुशी का अनुभव हुआ । बनारस की इन तंग गलियों में दिल की विशालता नज़र आई । दोस्तों के आँखों में इस पल को समेट लेने की चाहत नज़र आई। उन आँखों में इस पल को समेटने की ललक के साथ बिछड़ने के दर्द को आँखों की पलकों में छुपा कर मुस्कुराने की मजबूरी भी दिखाई दी। साथ में भविष्य में मिलने की कसम भी सभी ने खाई। पर कुछ पलकों ने आंसू को छुपाना गवारा नहीं समझा पाएल के जाते वक़्त आकांशा ने उसे बहने दिया बाकि ने दर्द की मुस्कराहट से कोरम पूरा किया कि जाने वाले को हंस कर विदा किया जाये। मै भी वहा मौजूद था मुझे तो यह घटना तो बस काफिले कि शुरुवात लगी आखिर मै भी तो उस काफिले में चलने वाला मुसाफिर हूँ। कल मुझे भी तो उस दौर से गुजरना है। इन तमाम बिरोधावास के बावजूद सभी इस पल को पूरी तरह से जी लेना चाहते थे । सभी ने उस पल को जिया । इस पल को यादगार बनाने के लिए और यह अवसर उपलब्ध कराने के धन्यवाद् आकांशा और सम्पूर्ण आकांशा परिवार जिनोहोने अपना प्यार हम सब को दिया।

अक्की की दावत

कल हम लोग आकांक्षा के घर पर थे। एक आखिरी पार्टी के लिए जो हम लोग , हम सब लोग साथ मिलकर मनाने वाले थे। काफी अच्छा लगा वहां जाकर। अब तो बनारस का काफी कुछ याद आएगा। अस्सी घाट, कशी हिन्दू विश्वविद्यालय, बिरला हॉस्टल और आकांक्षा का घर भी। पहली बार यहाँ मैं किसी दोस्त के घर गया था। वहाँ मुझे महसूस ही नहीं हुआ कि मैं कहीं किसी और के घर आया हूँ। एकदम पारिवारिक माहौल था। वहाँ हम लोगों ने डांस (इस चीज में मैं काफी कमजोर हूँ) किया, खूब एन्जॉय किया। उसके बाद सभी लोगों ने साथ मिलकर खाना खाया। बहुत ही अच्छा लगा यह सब देखकर। आकांक्षा तो एकदम परेशान थी कि किसको कितना खिला दें। ये लड़की वहाँ भी परेशान थी। आंटी और अंकल दोनों लोग बहुत ही प्यार से मिले। और हाँ, आकांक्षा का छोटा भाई मानु, उसको तो शायद ही कभी भूल पाऊं। स्मार्ट बन्दा है। कुल मिलाकर बस यही कहना है कि कल, १ मई २०१० का दिन काफी यादगार गुजरा। आकांक्षा, हम आपको बनारस कि खूबसूरत यादों में एक और हसीं दिन जोड़ने के लिए शुक्रिया कहते है। आपका ये दोस्त आपकी सफलता के लिए हमेशा दुआ करेगा।
धन्यवाद

शनिवार, 1 मई 2010

.....और हम चल दिए ( अब तो हमें जाना पड़ेगा...)

जुगनू कोई सितारों की महफ़िल में खो गया,
इतना न कर मलाल जो होना था हो गया।
बादल उठा था सबको रुलाने के वास्ते,
आँचल भिगो गया कहीं दामन भिगो गया।


आज ये दिल सीने में एक नश्तर की तरह चुभ रहा है। ऐसा तो कुछ नहीं कि मैं कुछ छोड़ कर जा रहा हूँ। तमाम यादें, तमाम बातें इस दिल में हैं, शायद वहीँ से ये चुभन हो रही है। जिंदगी भी कितनी अजीब चीज है न। तड़के का मसाला हमेशा अपने साथ रखती है, कभी होठों पे मुस्कराहट सजाती है तो कभी आँखों को आंसुओ से सराबोर कर देती है। दोस्तों, तुम्हारी यादें इस दिल में बनी रहेंगी। हो सकता है वक़्त इन यादों को कुछ धुंधला कर दे मगर दिल से इनका अक्स, इनकी कशिश कैसे निकाल पायेगा। अब बस कुछ ही घंटों की बात है जब हम अपनी-अपनी मंजिल की तरफ कदम बढ़ाएंगे। भौतिक रूप से हम कितने भी दूर रहें पर कोशिश यही रहेगी कि दिलों के दरम्यान कभी कोई फासला न हो। आने वाला कल बेशक हमारा है और हम अपनी जिंदगी में कामयाबी की एक नयी इबारत लिखने जा रहे हैं। और बड़े-बड़े काम करने के लिए कुर्बानी तो देनी ही पड़ती है।

अब कुछ मेरे बारे में भी। मुझे पता नहीं कि मेरी मंजिल कहाँ होगी पर अपने सपनों को पूरा करने में मैं कोई कसर छोड़ने वाला नहीं हूँ। मेर्री आँखों ने बहुत ही बड़े-बड़े सपने देखे हैंऔर जब देख ही लिए हैं तो जी जान से लगना ही है। अब मैं अगले कुछ ही दिनों में इस देश कि राजधानी में अपनी जगह तलाशने के लिए निकल रहा हूँ। दुनिया बहुत बड़ी है और ऊपर वाले ने मेरे लिए भी कुछ न कुछ इंतजाम किया ही होगा। आखिर मैं भी उसी का बन्दा हूँ। थोड़ा संघर्ष तो होगा ही मगर जब माँ-बाप का आशीर्वाद, दोस्तों की दुआएं और उपरवाले का हाथ मेरे साथ हो तो संघर्ष करने में मजा तो आएगा ही।
आप लोगों ने पिछले दो सालों में जो मेरा साथ दिया, मेरी हौसला आफजाई की, उसके लिए मैं आपका तहेदिल से शुक्रगुजार हूँ। आप लोगों की दुआएं हमेशा मेरे साथ रहेंगी और आपका ये दोस्त हमेशा आपकी कामयाबी के लिए दुआ करेगा। हो सके तो मुझे भी अपने दिल में एक छोटी सी जगह दे दीजियेगा, बाकी उस जगह को तो मैं बड़ा कर ही लूँगा। थोडा नाराज़ तो होंगे आप पर क्या करूँ...... ऐसा ही हूँ मैं!

निकल चले हैं खुल्ली सड़क पर,
अपना सीना ताने।
मंजिल कहाँ? कहाँ रुकना है?
उपरवाला जाने।
बढ़ते जाएँ हम सैलानी,
जैसे एक दरिया तूफानी,
सर पे लाल टोपी रूसी,
फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी।

अच्छा तो अब चलते हैं...............मिलते रहेंगे.

रविवार, 25 अप्रैल 2010

अब तो हमें जाना पड़ेगा (भाग-5)


ये तस्वीर अपने अन्दर एक कहानी समेटे हुए है। एक कहानी जो पिछले दो सालों से लिखी जा रही थी। इस कहानी को कई लोगों ने मिलकर लिखा है। कुछ लोग इस तस्वीर में नज़र आ रहे हैं और कुछ लोग इस इबारत में हाथ बंटाकर यहाँ की दुनिया से बाहर जा चुके हैं। हम भी कुछ दिनों में ऐसे ही चले जायेंगे पर ये कहानी आगे बढ़ती रहेगी। इस विश्वविद्यालय के अन्दर एक डिपार्टमेंट में एक छोटी सी दुनिया बसती है। उसी दुनिया की कहानी कह रही है ये तस्वीर। इस कहानी में प्यार है, ख़ुशी है अपनापन है तो गम भी है , जुदाई भी है। कुछ हँसते हुए चेहरे हैं तो कुछ उदास निगाहें भी हैं। दो साल तक साथ रहे ये हमसफ़र अब जुदा होने को हैं।
अब बस कुछ ही दिन और रह गए हैं, फिर सब अपने अपने रास्ते चल देंगे। सबने यहाँ आने से पहले कुछ सपने संजोये होंगे, इश्वर उन सपनों को शक्ल दे, उन्हें हकीक़त की ज़मीं बख्शे। आज मैं कोई नई बात नहीं कहने जा रहा। इम्तेहान चल रहे हैं और हमलोग आखिरी बार कोई इम्तेहान साथ-साथ दे रहे हैं। दो साल हंसी ख़ुशी से गुजर गए और आगे भी गुजरते रहेंगे। कॉलेज के दिन ज़िन्दगी के सबसे हसीं दिन होते हैं, सबसे खुशनुमा दिन। अब हमारी ज़िन्दगी के सबसे उद्देश्यपूर्ण दिनों की शुरुआत होने वाली है। इन्हीं दिनों के लिए हमने यहाँ तक का सफ़र तय किया था। माफ़ करना दोस्तों, उपदेश कुछ ज्यादा ही हो गया।

जब भी कभी टाइपिंग के लिए ये उँगलियाँ कीबोर्ड की तरफ बढ़ेंगी , तुम बहुत या आओगे अमित। जब कभी कोई लड़की एक ही सांस में पूरी बात कहने को बेताब दिखेगी तो आकांक्षा को याद आने से कैसे रोक पाऊंगा? और कस्तूरी तो मेरी सबसे अच्छी दोस्तों में से है, उसे कैसे भूल सकता हूँ। जितने लोग उतनी यादें, जितनी याद आएगी दिल उतना ही खुश होगा, रोयेगा, मुस्कुराएगा या आंसू बहायेगा। पायल, मैं जाने से पहले स्लिम तो नहीं हो पाया पर अब जब भी ये पैर ट्रैक पर दौड़ेंगे तो याद तो आओगी ही तुम। शायोंती जैसी चुलबुली लड़की को कोई कैसे भूल सकता है?

राजनाथ की अदाएं, आशीष की मिमिक्री, धीरज द्वारा फ्री में डाइटिंग कराना और कन्हैया का लहराना। सब तो मसाला है इस डिपार्टमेंट में। किस-किस की चर्चा करूँ? कुछ तो ऐसे हैं जिनके बारे में लिखने के लिए जगह कम पड़ जाए। सभी के साथ तो ऐसा ही है। ज़िन्दगी का एक चक्र यहाँ पूरा होता है। काफी किस्से- कहानियां हैं। सब एक दूसरे को इन्ही प्यारे लम्हों, शरारतों, नोंक-झोंक में सलामत रखें, यही दुआ है।
आमीन।

मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

धीरज तेरी अजब कहानी

धीरज तेरी अजब कहानी,
विभाग के हर जन ने तरह- तरह से जानी, कोई कहे एनोच्य्क्लोपेडिया, कोई कहे DATAMAN
दो साल बस बहस ही होता रहा की धीरज का उद्गम स्थल कहा है,
मतभेद की सीमा टूटी, किसी ने हड़पा का बताया किसी ने मोंज्दाड़ो,
पर धीरज ने कोशिश की मतभेद हो ख़तम करने की स्वीकार किया है जन्म प्रस्तेर युग का है,
पर भला बिवाग में विवाद कहा कम होने वाला था,
धीरज ने विवाद सुलझाने की कोशिश की,
लडकिय थी परेसान, हैरान कि इतनी मेहनत के बावजूद उनका भार क्यों बाद रहा है,
धीरज ने खोजा उपाय टिफिन उनकी कि अपने बस आज हालत है कि धीरज का भार बढ़ा और लड़किया हुई khus कि वोह रख पाई फिगेर मेन्टेन, आगे का धीरज कथा अगले अंक में
नमस्कार

राही बन जायेंगे पर सबको भूल न पाएंगे

जीवन के सफ़र में चलते रहना मजबूरी है,
यह मजबूरी १० दिन बाद हमारे पास भी आयेगी
वक्त की इस कसमकस में हमे भी दूर होने का आदेश सुनाएगी ,
पर क्या सफ़र में चलते रहने से राहो में मिलने वाले बिछड़ जायेंगे ?,
क्या आँखों के अश्क यूँ ही निकल आएंगे ,
मैंने हरगिज ऐसा तो सोचा नहीं था ,
पर वक़्त से भला कौन जीत पाया है,
पर हम जीत कर दिखायेंगे,
इन दूरियों के बावजूद सभी को एक दूसरे के दिलो में बसायेंगे,
बक्त कितना भी जुल्म करे, उसे हम हस कर सह जायेंगे,
आखिर दो बरसो का यह तजुर्बा यु ही तो नहीं भूल जायेंगे,
अंत बस यही राही बन जिन्दगी के सफ़र पर जायेंगे , पर सबको भूल न पाएंगे।

सोमवार, 5 अप्रैल 2010

दाने

भींच रखी है मुट्ठी मैंने,
वक़्त को फिसलने से रोकने को,
दाने दाने कर वो फिर भी खिसक रहा,
उड़ उड़ के साँसों के संग,
आँखों में है धस रहा

शनिवार, 3 अप्रैल 2010

नशा

मैंने तुझको देखा है जब से ,
कुछ खो गया है मुझसे ,
हर लम्हा तेरी तलब सी है ,
बदली नहीं है ज़िन्दगी ,
फिर भी अलग सी है.
 

शुक्रवार, 2 अप्रैल 2010

अब तो हमें जाना पड़ेगा (भाग-4)

अप्रैल वैसे तो पूरी दुनिया में मूर्ख दिवस के रूप में मनाया जाता है, लेकिन इस दिन को हमारे जुनिअर्स ने हम लोगों की विदाई का दिन चुनाउन्होंने एहसास करा दिया कि हम कशी हिन्दू विश्वविद्यालय परिसर में स्थित पत्रकारिता एवं जन सम्प्रेषण विभाग में कुछ दिनों के मेहमान हैंतरीका भी लाजवाब निकाला, हमें खिला-पिलाकर और ढेर सारा प्यार देकर हमें ये शिकायत करने का मौका ही नहीं दिया कि क्यों हमे यहाँ से अलग करने कि साजिश कर रहे होकोई बात नहीं, अगले साल तुम लोग भी जान जाओगे कि जुदा होने का गम क्या होता हैपिछले दो सालों में यहाँ पर जो प्यार मिला उसकी आशा नहीं थीकुछ खट्टी यादें भी हैं लेकिन जब तक खट्टा चखा जाए मीठे को चखने का पूरा आनंद नहीं मिलतायहाँ कि सबसे अछि बात ये रही कि हमने अपनी जिन्दगी के दो साल ...पूरे दो साल हँसते खेलते गुजारे हैंकिसी कि जिंदगी में दो दिन ऐसा गुजरता है तो वो खुशनसीब हैये बातें मेरे दिल से निकल रही हैं और दिल हमेशा ही जोश में कुछ ज्यादा बोल जाता हैकुल मिलकर बस यही कहना है कि दोस्तों मेरी जिंदगी को दो हसीं साल देने के लिए मैं आपको शुक्रिया अदा करता हूँ

अब कुछ दिनों के बाद हम सब अपने-अपने रास्तों पर चल पड़ेंगेकई ऐसे लोग भी होंगे जिनसे अब शायद ही कभी मुलाकात का मौका मिलेकई लोग मिलते रहेंगेलेकिन एक जगह है जहां सब आबाद रहेंगे...एक दूसरे के दिलों मेंऊपर वाले ने ये कितनी अजीब चीज़ हमारे सीने में डाल दी है कि हर ख़ुशी और गम के मौके इसमें सेव हो जाते हैं और हम चाहे भी तो इन्हें डिलीट नहीं कर सकतेकल तक हम जिन्हें जानते नहीं थे आज वो हमारे दिलोदिमाग पर अपनी छाप छोड़ चुके हैंहो सकता है कि कुछ सालों के बाद ये यादें कुछ धुंधली पड़ जाएँ पर इनके अक्स का मिटना तो नामुमकिन हैतुम सब याद आओगे दोस्तों, बहुत याद आओगे

अब कुछ बातें फेअरवेल कीकल हमलोगों ने खूब एन्जॉय कियाइसके लिए मैं अपने जुनिअर्स का शुक्रगुजार हूँ कि उन्होंने हमें इतनी इज्ज़त बख्शी, इतनी खुशियाँ दीं कि उन्हें समेटना मुश्किल हो रहा थाइन ढेर सारी खुशियों के लिए, प्यार के लिए, सम्मान के लिए और जिंदगी में एक बेहद ही खूबसूरत दीं जोड़ने के लिए मैं आप सबको धन्यवाद करता हूँकल हमारे क्लास कि लडकियां साडी पहनकर आई थीं और खुदा कसम बहुत ही खूबसूरत लग रही थीतो मैं अपने जुनिअर्स का इसलिए भी शुक्रगुजार हूँ कि उन्होंने ऐसा ड्रेस कोड बनायाजुनिअर्स ने तस्वीरों को गाने के साथ बहुत ही खूबसूरत ढंग से सजाया थाखाना भी बहुत लाजवाब थाअमित गौरव ने शम्मी कपूर और हेलन कि याद एक साथ दिला दी, आशीष ने एक अतुलनीय शख्स कि नक़ल उतारी और राघवेन्द्र ने दिल कि बातें कहीं ....ये सब देखकर अच्छा लगामुरली ने भी तस्वीरों को काफी काफी इमोशनल तरीके से सजाया थावहां बैठे सभी लोग रो रहे थे, फर्क सिर्फ इतना था कि कुछ की आँखें रो रही थीं और कुछ का दिल रो रहा थाअच्छा आज के लिया बस इतना ही... बाकी फिर कभी....

अज़ीम लोग हैं इज़हार गम नहीं करते,
दिल तो रोता है आँखें नाम नहीं करते...

गुरुवार, 1 अप्रैल 2010

राही

लफ़्ज़ों के समंदर का राही हूँ,
कागज़ पे बिखरी स्याही हूँ,
हूँ अक्स अपने ही अरमानों का,
कुछ उम्मीदों का साकी हूँ.

खेलते हैं जज़्बात मेरे सीने में,
ठहरे हैं अश्क आँखों के ज़ीने में,
है जो ये जाल साँसों का,
कुछ निकला हूँ उससे कुछ बाकी हूँ.

बुधवार, 31 मार्च 2010

सिसकियाँ

अपनी तो बाकी युहीं गुज़र जायेगी,
ना सही कोई, तन्हाई साथ निभाएगी,
अपने जीने की रकम युही अदा करेंगे,
सिसक लेंगे चुपके से बेजान रातों में.

गुरुवार, 25 मार्च 2010

What are we!!!!!

What are we.  This damn question is haunting me ever since i landed up here.  The soul thing that's been the USP of this department is criticizing.  All we do is to blame others for our fault/inefficiency.  I mean we are future journalist, as far as concerned, then why not we do what we are supposed to.  There are  lots of unwanted things going on around us, towards which we can draw attention of the society.

Take for example, felling of trees inside B.H.U campus.  During past few months several trees have been chopped down in order to build up new structures.  All this being done under the banner of so called DEVELOPMENT.  Why developing on the cost of such valuable asset.

Another thing that can be brought up is the quality of education that's been served in this esteemed institution.  Most of the departments lack even proper structure to carry on with their specificities.  All they have is a bunch of students, sometimes insufficient faculty and rotten benches.  Student come in this prestigious university and what they get here is a long and tiring lesson of patience. Over the time period of their courses they become master in the art of saying " arrey sab chalta hai yaar, hone do jo ho raha hai, hume kya hai degree lo aur chalo." This very thing they carry throughout their lives wherever they go.


Leave aside them, they are common people. Why in the world we stopped questioning things.  I mean thats the part of our job right. I ask all my batch mates and seniors to wake up and do what we are entitled for.

सोमवार, 22 मार्च 2010

मंज़र

निगाहें बहुत  देर एक मंज़र पे ठहरी रही,
पलके जो झपकी ज़रा सी वो मंज़र कहीं नहीं,
कौन कहता है जो चाहो वो तुम्हे मिल जाएगा,
हसीं लम्हा ये ज़िन्दगी का सभी को मयस्सर नहीं.

चिराग तले अँधेरा



एक कहावत जो माँ से सुनी थी आज उसके अस्तित्व को महसूस किया है. इससे चिराग की बदकिस्मती कहिये या उसकी नाकामी.  वो चिराग जो अपनी सीमित शक्ति के बावजूद दूसरों को रास्ता दिखता है अपने अन्दर एक घना अँधेरा छुपाये होता है. ऐसा ही कुछ मै अपने आसपास देख सकता हूँ.  एक विभाग जो की अपने मूल रूप में सम्प्रेषण का घर है, वहां स्वयं सम्प्रेषण नामक वस्तु का आभाव है.  कोई किसीसे कुछ बोल नहीं सकता क्योकि विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता यहाँ लागू नहीं होती.  आप नहीं जान सकते की ऐसा क्यूँ है.  हाँ अगर आपने धरा के विपरीत जाने की कोशिश की तो मूह की खानी पड़ सकती है.  सारा सम्प्रेषण एक्मार्गीय है. खैर जैसे इस दुनिया की यानि की सम्प्रेषण की दुनिया की बाकि समस्याएँ दूर हुई है इस समस्या का भी कोई न कोई हल तो अवश्य होगा. जरुरत है उस चिराग को चिराग दिखाने की. 

शनिवार, 20 मार्च 2010

कोयल और बौर

कब चुपके से पतझड़ की ओट लेकर गरमी घर तक आ गयी पता ही नहीं चला. हरे भरे पेड़ पलक झपकते ही बूढ़े नज़र आने लगे.   सर्दियों की कुनकुनी धूप में हौले से एक जलन शामिल हो गयी है.  इस बदलते मौसम ने जहां कुछ चीजों को छीना वहीँ कुछ तोहफे  भी दिए हैं.  इन सौगातों में आम की बौर की महक और कोयल की रूहानी आवाज़ सबसे कीमती है.  अपने प्यार को तलाशती कोयल बौरों की महक को उसकी खुशबू समझ लेती है.  इस धोखे में वो बेचारी सारा वक़्त तपती दोपहरिया में उसे पुकारती फिरती है. प्यार की ये पुकार सारे वातावरण को रूमानी बना देती है.  कोयल की बेचैन खोज ने बौरों को तो नया रूप दिया पर वो खुद अकेली रह गयी.  साल दर साल भटकते रहने पर भी उसका प्यार मुक्कम्मल न हो सका. प्यार की अक्सर यही परिणति होती है, वो वफ़ा और कुर्बानी की आंच में तप के भी बजाय कुंदन होने के राख हो जाता है. 

गुरुवार, 18 मार्च 2010

ये जिंदगी...

जिंदगी ने गम के सिवा और क्या दिया?
एक दिल दिया और वो भी तनहा दिया।

मुद्दतें बीत गयी थीं तुझे देखे ख़ुशी,
तुमने यूँ अचानक आकर चौंका दिया।

किससे करूँ शिकायत बर्बाद होने पर,
हमने ही तो कातिलों को मौका दिया।

चारों तरफ तो मेरे दोस्तों की भीड़ थी,
फिर कौन था वो जिसने मुझे धोखा दिया?


शिकवा कीजियेगा कि बेवफा हूँ मैं,
अदाएं थीं आपकी, जिनको लौटा दिया।


अफ़सोस कर 'विनीत' किस्मत का खेल है,
लेते चलो जिन्दगी ने तुम्हे जितना दिया.

अब तो हमें जाना पड़ेगा- भाग 3

कुछ छूट रहा है..... वो सीढ़ी का कोना जिसे हम अपने दोस्तों के साथ बांटते हैं। डिपार्टमेंट के गेट के सामने की वो छोटी सी पुलिया, जिस पर बैठकर हम हंसी-ठिठोली करते रहते हैं, जहाँ हमने अपने दोस्तों के साथ इस विश्वविद्यालय की पहली होली खेली थी। वो अस्सी घाट, जहाँ की सीढियों पर बैठकर हम घंटो बातें करते रहते है। वो लंच ऑवर, जब चार टिफिन्स को चौदह लोग शेयर करते हैं। वो एक-दूसरे की टांग खींचना, जिसका शायद ही कोई बुरा मानता है, और मान भी जाए तो बाद में सब नॉर्मल। वो हज़ारों मनगढ़ंत किस्से, जो अचानक से किसी को हंसाने के लिए गढ़े जाते हैं। वो शिकायती नज़रें, जो पूछती हैं, मैं ही क्यों? वो सेंट्रल laibrary , जहां हम कभी-कभी ही जाते हैं। वो कहानियां, जो हॉस्टल में बनती और बिगड़ती रहती हैं। वो हॉस्टल, जो दो साल के लिए हमारा आशियाना, हमारी दुनिया रही। वो बाथरूम, जहाँ क्लास जाने की जल्दी में दो, और कभी-कभी तीन लोग नहाते हैं। वो लोग जिन्हें हम 'सर' कहते हैं और वो लोग जो हमें 'सर' कहते हैं। वो जिंदगी, जो हम अभी जी रहे हैं। सबसे ज्यादा वो लोग, वो दोस्त जिन्होंने इन दो सालों के सफ़र को इतना छोटा और हसीन बना दिया.