शुक्रवार, 18 नवंबर 2011

No joy for Julian

The Swedish view of Julian Assange, who lost his appeal against extradition to face sex allegations on November 2, has changed in a year from the James Bond of the internet to a paranoid chauvinist pig. The man who has been holed up in an English country house instead of allowing himself to be questioned here in Sweden about an alleged rape cuts an increasingly pitiable figure. His attempts to depict Sweden as a banana republic that would ship him on to the United States is another sign of how desperate Assange has become. You can blame Sweden for lots of things -- filthy weather, overrated crime novels, Ikea furniture -- but to claim this country is the Central Intelligence Agency's (CIA's) accomplice, with an extremist law on sex crimes, irritates even his most loyal fans, of whom there are still a few.
It is ironic that Sweden, the country Assange once admired because of laws that shield our freedom of expression and freedom of the press, should have been the place where his sun began to set. In the spring of 2010, when the Collateral Damage video had just been released, he announced that he wanted to move central parts of the WikiLeaks operation to Stockholm.
Sweden  is one of the most wired-up countries in the world and a culture of illegal downloading and net activism is strong here. Perhaps that's why the love affair between Assange and Sweden started so strongly. Even among those who would never use their computers for anything but Google and email, the remains of the anti-Americanism of the 1970s radical left produced a certain admiration for the man.

Assange-the-hero vanished somewhere in that anti-Semitic and anti-feminist slime. Sweden's relatively high measure of sexual equality and consciousness when it comes to gender questions is a matter of national pride. That a dodgy hacker from Australia started knocking the country was not popular.
Last month, two women journalists who started a Twitter campaign over Assange's contemptuous remarks about Swedish women were nominated for the most prestigious prize in Swedish journalism. The "Let's Talk About It" campaign got thousands of people to discuss the grey areas of sexual conduct openly. 
Assange was not the radical hero he had supposed but "a solitary and shabby libertarian who wants to tear down democratic societies".

रविवार, 13 नवंबर 2011

हम किस गली जा रहे हैं.....


भारतीय राजनीति का अंधा युग अब शुरू हो गया लगता है। जिस रफ्तार से नेताओं पर घोटाले, हत्या और यहाँ तक कि बलात्कार के आरोप लग रहे हैं, आम जनता का विश्वास लोकतंत्र से उठता जा रहा है। आज जहाँ भारत की आम जनता भ्रष्टाचार, महंगाई और बेरोजगारी जैसी तमाम तरह की समस्याओं से जूझ रही है, वहीं इस मुल्क के अफसरान और हुक्मरान दोनों ही बस अपनी तिजोरियाँ भरने में लगे हैं। अब तो किसी को याद भी नहीं होगा कि देश के इन कर्णधारों ने आखिरी बार जनहित में कब कोई फैसला लिया था। हाँ, इनके द्वारा अंजाम दी गई तमाम तरह की आपराधिक गतिविधियाँ अक्सर अखबार की सुर्खियों में अपनी जगह बना लेती है।

किसी भी राष्ट्र का भविष्य उसे चलाने वाले लोगों के चरित्र पर निर्भर करता है। भारत निश्चित रूप से इस मामले में सबसे गरीब देश है। आर्थिक विकास के आँकड़ों में हम भले ही दुनिया के अग्रणी देशों में शामिल हों, पर जमीनी हकीकत इससे काफी जुदा है। आज भी इस देश में कई इलाके ऐसे हैं जहाँ लोगों के लिए रोटी, कपड़ा और मकान जैसी मूलभूत सुविधाओं का होना ही सबसे बड़ा ख्वाब है। देश की राजधानी में ही तमाम ऐसी झुग्गियाँ हैं जहाँ आप छोटे बच्चों को भूख से बिलबिलाते देख सकते हैं। ऐसा लगता है कि आलीशान बंगले में रहने वालों के लिए ये सड़क पर घूमने वाले आवारा कुत्तों से ज्यादा कुछ नहीं हैं। काश कि लोग इनके खिलाफ कायदे से खड़े हों, और यकीन मानिए, मैंने भी अभी तक इनके खिलाफ कुछ नहीं किया है।

शुक्रवार, 11 नवंबर 2011

गजल..


कुछ और ही रोशन अब शहर हुआ है।
शायद कोई गरीब फिर बेघर हुआ है।

तुम चीखते चिल्लाते ही रह जाओगे,
हुकूमत पर भी कभी असर हुआ है?

इस सन्नाटे को यारों, गौर से सुनना,
कोई हंगामा यहाँ पर रातभर हुआ है।

चुपचाप गिनती हैं लाशों को सरकारें,
कत्लेआम अखबारों की खबर हुआ है।

इस दिये में तेल से भीगी हुई बाती तो है


पिछले कुछ समय से चल रहे राजनीतिक ड्रामों को देखकर अब ये कहा जा सकता है कि भारतीय राजनेता मानसिक दीवालियेपन का शिकार हो चुके हैं। अब उन्हें जनता की समस्याओं से कोई सरोकार नहीं रहा। उनकी सारी उर्जा यात्राओं, एक-दूसरे पर लांछन लगाने और अपने आप को किसी भी कीमत पर पाक साफ साबित करते रहने में लग रही है। अब तो इन सबके बारे में इतना कुछ सुना जा चुका है, इतना कुछ देखा जा चुका है कि अब कोई घोटाला नहीं चौंकाता, इनकी कोई भी कारस्तानी अब तकलीफ नहीं देती। आम भारतीय जनता कष्ट झेलने की आदती हो गई है।

आजकल हमारे नेता और धर्मगुरू भी यात्राओं पर काफी जोर दे रहे हैं। हाँ, ऐसी यात्राएँ करके ये जनता की तकलीफें और बढ़ा ही देते हैं। जिस दिन इनकी यात्रा किसी शहर से गुजरती है, उस दिल वहाँ ट्रैफिक जाम लग ही जाता है। स्कूल जाते बच्चों और छोटी मोटी मजदूरी करके अपना पेट पालने वालों पर इन महानुभावों की यात्राओं का खासा असर पड़ता है। ये ठीक वैसी ही होती हैं जैसे कभी पुराने समय में राजा-महाराजा अपनी रियासत का चक्कर काटने निकलते रहे होंगे। ये आधुनिक समय के ‘राजाबस जनता की तबाही का मंजर देखते हैं और सोचते हैं कि इनको नोचने की और कितनी गुंजाईश बची है।

आम लोगों की बेबसी जब देखनी हो तो किसी सरकारी अस्पताल के जनरल वार्ड में या फिर रेल के जनरल अपार्टमेंट में आराम से देख सकते हैं। उनके लिए इन दोनों जगहों पर केवल थोड़ी सी जगह मिल जाए तो काफी है। हैरानी तो मुझे तब होती है जब इस हालत में भी इन्हें आमतौर पर खुश देखता हूँ। थोड़ी सी लेटने की भी जगह मिल जाए तो अपने आपको खुशनसीब समझते हैं। जबकि इनका ही खरबों रूपया स्विस बैंको में हमारे नेताओं ने जमा करा रखा है। पाँच साल गरियाने के बाद अगर नेताजी इनके खर का रूख करते हैं तो ये खुद को धन्य मानने लगते हैं। हजारों साल की दासता झेलने के बाद एक आम आदमी देश के निर्माण में अपनी भागीदारी के बारे में सोच भी कैसे सकता है?

रहा सवाल हमारे युवाओं का, तो इसमें भी दो वर्ग एक साथ दिखाई देते हैं। एक वो जिसके सामने सुनहरा भविष्य है और दूसरा वो जो बेरोजगारी के अँधियारे में अपनी उम्मीदों को टटोल रहा है। मेरे खयाल से अगर इस समय किसी का सबसे ज्यादा शोषण हो रहा है तो वो इस देश के युवा ही हैं। इनकी सबसे बड़ी त्रासदी यही होती है कि इन्होंने चमकदार भविष्य के ढेर सारे सपने सँजोए होते हैं। और जब ये सपने टूटते हैं तो कुंठा के रूप में जन्म लेते हैं। हमारे देश के ये नौजवान अगर संकल्प लें कुछ कर गुजरने का, इस देश के भाग्य को बदलने का, तो वो दिन दूर नहीं जब एक अभिनव भारत दुनिया के नक्शे पर होगा, जहाँ कोई शोषित नहीं होगा, जहाँ कोई शोषक नहीं होगा। जैसा कि कभी दुष्यंत कुमार ने कहा था...

इस नदी की धार से ठंडी हवा आती तो है
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है
एक चिंगारी कहीं से ढूँढ लाओ दोस्तो
इस दिये में तेल से भीगी हुई बाती तो है।

गुरुवार, 10 नवंबर 2011

My love is gone.

I am ever alone.
My love is gone.
Apathy and zeal.
Have the same feel.
Moments of enlightening.
Far from frightening.
Only time guides me.
shimmering sky.
Passes by.
Far fetched dreams swallow
into
a river called reality.
I sit down opposite to
my grievances
to share the spoils.
One hope of memory fades fast.
I must complement almighty
for this conviction.
uprooted feet
still moving
on self created tunes
like deserted dunes.
I fear alone
My love is gone
Ablution of soul
The World of mime at whole
Re-birth is about to occur.
Everybody is fallible
But not  always.
Now my heart knows
Why my love is gone?


यूँ ही, अचानक...


कुछ यादें, कुछ चीजें,
आस-पास बिखरी हुईं,
अक्सर दिख जाती हैं,
यूँ ही,
अचानक।
उनका वजूद,
कुछ खास नहीं होता,
लेकिन,
उनसे जुड़ी होती हैं,
कई कहानियाँ,
कई किस्से।

एक लॉकेट,
जो किसी ने दी थी,
बहुत प्यार से,
जो आज वहाँ,
उस खूँटी पर पड़ी है।
या फिर ये टी-शर्ट,
और ये कॉफी मग,
सबके पीछे कई कहानियाँ है,
हर एक चीज में,
दिखता है अक्स,
किसी न किसी का।

और ये कलम,
इसे कैसे भूल सकता हूँ,
किसी ने दी थी,
बड़े प्यार से,
कुछ किस्से, कुछ नगमे,
ये भी तो लिख जाती है,
यूँ ही,
अचानक।

जंजीरें....


वहाँ पेड़ों में जंजीरे बँधी थी,
लोहे की,
काफी मजबूत जंजीरें,
न जाने कौन बाँध गया था,
और क्यों?
मन को कुछ खटक रहा था,
क्यों कोई ऐसा करेगा?
ऐसे तो ये पेड़ उदास से दिखते हैं
चल दिया मैं अपनी राह।
खोया हुआ सा खुद में,
फिर एक रोज जाना हुआ उधर,
जंजीरों में तख्तियाँ लगी थीं अब,
और बच्चे झूल रहे थे,
उन झूलों पर,
गायब हो गयी थीं पेड़ों की उदासी,
और तभी कुछ बूढ़े नजर आये,
जंजीरों में बँधे हुए,
ठीक वैसे ही,
जैसे,
कभी पेड़ों में जंजीरे बँधी थी।