रविवार, 24 अक्तूबर 2010

दिल्ली में दिल नहीं लगता

शीर्षक देख कर पड़ने वालो को अंदाज़ा लग जायेगा की ये भुत ही निजी भाव है पर मेरा मानना है की इस से कम से कम एक बार दिल्ली आने वाला तो जरूर गुजरता होगा। आज मुझे दिली में आये दो महीने हो गये है पर अब तक दिली मुझे रास नहीं ई है। हो सकता है की इससे दिल्ली वाले नाराज़ हो जये की जो सहर रोटी दे रहा है उसी की बुरे मै कर रहा हूँ पर यह सच है मुझे तो दिल्ली नहीं भाई। कुछ दिनों में दीपावली है लोग कुशिया मानाने की तयारी कर रहे है पर लगता है की मज़बूरी में। पिछले दो साल मै बनारस में था हालाँकि दीपावली को मै अल्लाहाबाद आ जाता था पर वापस जाने के बाद दोस्तों के बिच असली दीपावली मानती थी। आकांशा शर्राफ के घर का काजू की बर्फी का तो सभी को इंतजार होता था। अब सभी को होता था तो मैकैसे छूट सकता हूँ मुझे भी इंतजार होता था। बात मिठाई की नहीं बल्कि उस मस्ती की है जो दिली में कही खो गयी है। इस लिया जैसे जैसे दिवाली पास आ रही है मेरा दिल बैठता जा रहा है। वैसे भी त्योहारों पर मै बहुत उत्साही प्रविर्ती का नहीं हूँ पर पिछले दो सालोमे त्योहारों मर हँसना और कुछ हद तक मनन तो सिख लिया तक जिसे मै छह साल पहले किन्ही कारणों से भूल गया था। कम से कम डिपार्टमेंट ले जाने के बहाने ही सही त्योहरोपर अपने पाक कला का मुजायरा तो कर ही देता था। पर इस बार तो ये मौका भी छुट जायेगा। इसे ही कहते है नौकरी यानि नौकर की नहीं चलेगी मर्ज़ी। खेर दिल्ली में फिलहाल तो रहना मजबूरी है। बस इस आस से दिन गिन रहे है की मार्च के बनारस हिन्दू उनिवेर्सित्य के धिख्संत समारोह में सभी फिर से एक बार मिलेंगे।ग़ालिब को रास आयी दिल्ली की गलियाँ ,कबीर को भाई कासी हमको तो बस मिल जाये सब साथी वोह है हमारी कशी.

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