आज जबकि सब कुछ सीमाओं में बंधा हुआ है, एक आकाश ही है जो हमारी कल्पनाओं को पर लगाता है। इस खुले आसमान में उड़ान भरने के लिए आपका स्वागत है।
शनिवार, 20 मार्च 2010
कोयल और बौर
कब चुपके से पतझड़ की ओट लेकर गरमी घर तक आ गयी पता ही नहीं चला. हरे भरे पेड़ पलक झपकते ही बूढ़े नज़र आने लगे. सर्दियों की कुनकुनी धूप में हौले से एक जलन शामिल हो गयी है. इस बदलते मौसम ने जहां कुछ चीजों को छीना वहीँ कुछ तोहफे भी दिए हैं. इन सौगातों में आम की बौर की महक और कोयल की रूहानी आवाज़ सबसे कीमती है. अपने प्यार को तलाशती कोयल बौरों की महक को उसकी खुशबू समझ लेती है. इस धोखे में वो बेचारी सारा वक़्त तपती दोपहरिया में उसे पुकारती फिरती है. प्यार की ये पुकार सारे वातावरण को रूमानी बना देती है. कोयल की बेचैन खोज ने बौरों को तो नया रूप दिया पर वो खुद अकेली रह गयी. साल दर साल भटकते रहने पर भी उसका प्यार मुक्कम्मल न हो सका. प्यार की अक्सर यही परिणति होती है, वो वफ़ा और कुर्बानी की आंच में तप के भी बजाय कुंदन होने के राख हो जाता है.
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