गुरुवार, 18 मार्च 2010

अब तो हमें जाना पड़ेगा- भाग 3

कुछ छूट रहा है..... वो सीढ़ी का कोना जिसे हम अपने दोस्तों के साथ बांटते हैं। डिपार्टमेंट के गेट के सामने की वो छोटी सी पुलिया, जिस पर बैठकर हम हंसी-ठिठोली करते रहते हैं, जहाँ हमने अपने दोस्तों के साथ इस विश्वविद्यालय की पहली होली खेली थी। वो अस्सी घाट, जहाँ की सीढियों पर बैठकर हम घंटो बातें करते रहते है। वो लंच ऑवर, जब चार टिफिन्स को चौदह लोग शेयर करते हैं। वो एक-दूसरे की टांग खींचना, जिसका शायद ही कोई बुरा मानता है, और मान भी जाए तो बाद में सब नॉर्मल। वो हज़ारों मनगढ़ंत किस्से, जो अचानक से किसी को हंसाने के लिए गढ़े जाते हैं। वो शिकायती नज़रें, जो पूछती हैं, मैं ही क्यों? वो सेंट्रल laibrary , जहां हम कभी-कभी ही जाते हैं। वो कहानियां, जो हॉस्टल में बनती और बिगड़ती रहती हैं। वो हॉस्टल, जो दो साल के लिए हमारा आशियाना, हमारी दुनिया रही। वो बाथरूम, जहाँ क्लास जाने की जल्दी में दो, और कभी-कभी तीन लोग नहाते हैं। वो लोग जिन्हें हम 'सर' कहते हैं और वो लोग जो हमें 'सर' कहते हैं। वो जिंदगी, जो हम अभी जी रहे हैं। सबसे ज्यादा वो लोग, वो दोस्त जिन्होंने इन दो सालों के सफ़र को इतना छोटा और हसीन बना दिया.

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