गुरुवार, 1 अप्रैल 2010

राही

लफ़्ज़ों के समंदर का राही हूँ,
कागज़ पे बिखरी स्याही हूँ,
हूँ अक्स अपने ही अरमानों का,
कुछ उम्मीदों का साकी हूँ.

खेलते हैं जज़्बात मेरे सीने में,
ठहरे हैं अश्क आँखों के ज़ीने में,
है जो ये जाल साँसों का,
कुछ निकला हूँ उससे कुछ बाकी हूँ.

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