मंगलवार, 14 सितंबर 2010

याद आती है बिरला की वो गलियाँ

सुना था डेल्ही दिल वालो की है, दिली की चौड़ी सड़के मुझे तो रास नहीं आई। सोचता रहा भला ये स्थिति क्यों आई। काफी सोच बिचार कर जिन्दगी के वोए दो साल बार बार याद आ रही है। अब आप पूछेंगे की भला जिन्दगी के कौन से दो साल है जिसके बारे में मै बात कार रहा हूँ। तो मै आपको बता दूं की मै बनारस मेबिताए उन हसीं दो सालो की बात कर रहा हूँ जो मैंने बिरला हॉस्टल में बिताएँ। अब आप कहेंगे की भला बिरला और बनारस में ऐसा क्या था जो डेल्ही के क्नौघ्त प्लेस में नहीं है। और वैसे भी हर सहर की अपनी खासिअत होती है.तो बाखुदार यह बता दूं की जो मजा जो निश्चल प्यार उन तंग गलियों में था जो प्यार की दरिया गंगा बहाती है वोह डेल्ही की यमुना में कहाँ है यहाँ तो सडको के साथ दिल भी लोगो के सख्त है। यहाँ तो वीनित की तरह सपने देखने वाले है पर उसमे उसके तरह निश्चलता नहीं है बल्कि कुटिलता है, मुरली तरह लोग तुनक मिजाज है पर उसमे भी द्वेष राग है। और न जाने ऐसी ही कितनी बाते है जिसे लिखना सुरु करू तो समय और ब्लॉग दोनों कम पद जायेगा । बस एक लाइन में कहूँगा की तीनो लोक में प्यारी कशी और प्यारे वोह सब जिनका नाम मै ने नहीं लिखा पर दिल के कागज पर लिखा है।

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