गुरुवार, 17 मार्च 2011

एक शहर, बनारस..(भाग-2)

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कैंपस में पहुँचकर काफी अच्छा लग रहा था। कुछ महीनों बाद बिरला हॉस्टल की उसी लॉबी में अपना डेरा जमा जो दो सालों तक मेरा बसेरा था। फिर भी कुछ कचोट रहा था। अब कमरा नम्बर 226 में अलसुबह “का हो गुरु” कहकर जगाने वाले अजीत भाई नहीं रहते थेा सुबह-2 जब वो केवल तौलिया लपेटकर यहाँ से वहाँ कूदते तभी मुझे मालूम पड़ता था कि अब क्लास जाने का वक्त हो गया है। काफी चेहरे परिदृश्य से गायब हो गये थे। राघवेन्द्र, मुरलीधर, राजनाथ, सचिन और आलोक तो कन्वोकेशन में आये ही नहीं थे। हॉस्टलर्स में एक मैं था और बाकी अमित, अंकित और धीरज थे। स्टेशन से चलते समय ही हम लोगों ने तय कर लिया था कि गाउन वगैरह रिसीव करने के बाद शाम को अस्सी घाट पर चलेंगे। पढ़ाई के दौरान तो घाट पर खूब जाना होता था। वहां पर हम क्लास के लड़के-लड़कियां खूब गप्पे हांकते, एक दूसरे की खिंचाई करते, हँसते-हँसाते और फिर गंगाजी की आरती में शामिल होते। तब हमारे दिन ऐसे ही मस्ती में गुजरते थे।


हाँ तो दीक्षान्त समारोह के लिए गाउन रिसीव करना भी कोई बच्चों का खेल नहीं था। लड़को की लाईन काफी लंबी थी और हमें अब लग रहा था कि अब उधार के गाउन से ही काम चलाना पड़ेगा। लेकिन किसी तरह आकांक्षा ने हमें गाउन दिलवा दिया। ये वही आकांक्षा थी जिसे मैं मिस हैरान-परेशान कहकर चिढ़ाया करता था। उस दिन वो न होती तो हमें बनारस की परंपरागत आपातकालीन व्यवस्था ‘जुगाड़’ का ही सहारा लेना पड़ता।

शाम को तय प्रोग्राम के अनुसार हम सभी अस्सी घाट पर गये। हमारी आधी क्लास ही आई थी दीक्षान्त समारोह में हिस्सा लेने, इसीलिए कुछ दोस्तों की कमी बुरी तरह खल रही थी। साल भर पहले हम सभी दोस्त मिलकर किसी भी दिन को उत्सव बना देते थे। आज की मस्ती कुछ कम तो थी पर दिल्ली की जिंदगी के सामने तो ये फाइव स्टार लेवल की थी। घाट से लौटकर मैं तो सीधे बिस्तर में पड़ लिया। कल मुझे एम. ए. (मास कॉम) की डिग्री लेनी थी। और कुछ हसीन ख्वाबों को देखने के लिए मैंने अपना चेहरा चादर से ढँक लिया था।


ये है हमारा बिरला हॉस्टल...
पलकें भी चमक जाती हैं सोते में हमारी,

आँखों को अभी ख्वाब छुपाने नहीं आते।

(बशीर बद्र)




कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें