बुधवार, 3 मार्च 2010

होली तो अब हो ली....

होली आई भी और चली भी गयी। कुछ इसके रंग में रंग गए तो कुछ ने इसके साथ आँखमिचौली खेली। खेला तो सभी ने लेकिन मुझे कुछ कमी जरूर खटकती रही। अब ये मत पूछिये किस चीज की, बस खटक रही थी। इस बार होली पर मैं अपने गाँव गया था। तमन्ना थी कि दोस्तों के साथ इस बार की होली मनाऊं। काफी अरसे बाद गाँव में होली खेलने का मौका मिला था। दोस्त आये भी लेकिन दो चार ही। पूरे गाँव में सन्नाटा पसरा हुआ था। यकीन ही नहीं होता था कि ये वही गाँव की गलियाँ हैं जो कभी गुलजार रहा करती थीं। मेरे वो यार, जिनसे मिलने मैं गया था कहीं नज़र नहीं आ रहे थे। सब मजबूर थे, सब तनहा थे।
मुझे याद है कि होली के मौके पर हमारे गाँव में गीत गाये जाते थे। इस बार भी गाये गए लेकिन वो मज़ा नहीं आया जो चन्द साल पहले आया था। होली भी अब प्रोफेशनल हो गयी थी, रिश्तों की तरह। ये वही गाँव था जहां लोग आपसी भेदभाव भुलाकर प्रेम से हर त्यौहार मनाते थे। अब तो होली भी हैप्पी होली हो गयी। अपने हिस्से के अबीर गुलाल भी इस गाँव ने खानदानी झगड़ों में उड़ा दिए। होली के लिए तो कुछ बचाया ही नहीं। ये कहानी सिर्फ एक गाँव की नहीं है, बल्कि इस देश के लाखों गांवों की है। हमने अपने त्योहारों के लिए क्या बचाया है, कुछ नहीं। लोग नज़र नहीं आते क्योंकि सब अपनी नौकरियों में मस्त है और कौन चाहेगा कि एक दिन की छुट्टी के बदले इस पागलपन में हिस्सा लेना। अब तो कनेक्ट करने का जिम्मा भी नोकिया ने ले लिया है, उसका कॉपीराईट है भाई। बच्चे भी अब खेले तो किसके साथ, सभी व्यस्त हैं। देवदास पारो के साथ और कन्हैया गोपी के साथ खेल लें, वही बहुत है।
अब होली की मस्ती बीते हुए ज़माने की बात लगती है। पुराने लोगों के साथ पुरानी वाली होली भी चली गयी। अब गांवों में भी फागुन आकर चुपके से लौट जाता है। सावन में पेड़ों की डालियाँ झूले का इंतज़ार ही करती रह जाती हैं। अब गन्ने भी गुड के लिए नहीं, चीनी के लिए बोये जाते हैं। अब गांवों में भी लोगो की इज्ज़त उनकी एज नहीं बल्कि पैकेज देखकर की जाती है। उम्मीद है कि आने वाली होली फिर से सबको एक धागे में बाँध दे। तब तक इंतज़ार....


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