बुधवार, 23 फ़रवरी 2011

सफ़र

सहमते सकुचाते शुरू किया था एक सफ़र,
खट्टे मीठे एहसासों से भरी रही ये डगर,
सूख चला ये सोता भी अब ....
चल पड़े हम भी ढूंढने एक नया बसर.

गठरी में हैं बांधे कुछ लम्हे तोड़कर,
सोते हैं उसे सिरहाने संजोकर,
रह जायेंगे बस ये ख्वाब ही अब..
कसक से रह जायेंगे ये दिन उम्र भर.

मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

जीत....

जीत,


एक छोटा-सा शब्द,

पर अपने आप में,

कितना कुछ समेटे हुए।

असीम उल्लास,

...अनन्त विश्वास,

और नशा भी।

कितना बड़ा उत्प्रेरक,

और कैसी अनुपम अनुभूति!

मैँ जानता हूँ कि मेरी जीत.

किसी और की हार है।

पर थो़ड़ा-सा निर्दय हूँ मैं,

क्योंकि,

मुझे बस जीत ही स्वीकार है।

गुरुवार, 10 फ़रवरी 2011

मैं एक शापित मनुष्य...

सपने उड़ते रहते हैं,


जहाँ-तहाँ,

और मेरी आँखें,

तैयार रहती हैँ,

उन्हें लपकने के लिए।

ये एक ऐसी प्यास है,

जो बुझती ही नहीं,

बढ़ती ही जा रही है,

वक्त के साथ।

कितने ख्वाब पाल लिये हैं,

और कितने दुर्गम लक्ष्य।

उनको यथार्थ में बदलने को बेकल,

मैं एक शापित मनुष्य।

बुधवार, 9 फ़रवरी 2011

तेरी याद...

अभी हवा मुझे छूकर गयी,


एक खुशबु-सी थी उसमें,

जानी-पहचानी सी,

सच बताओ!

तुम यहीं कहीं,

...पास में ही हो न,

अभी भी वही शरारतें,

क्यों करती हो ऐसा?

अब तो मेरे सामने,

मेरे यार आ जाओ.

बात नेरी मानो,

एक बार आ जाओ.

शुक्रवार, 21 जनवरी 2011

कल्पना और वास्तविकता

कितना स्वच्छन्द, कितना उन्मुक्त था वह आकाश.




सपने तैरते थे, हजारों लाखों की संख्या में.



जैसे कि कल्पनाओं को पर लग गए हों.



धीरे-2 आकाश कुछ छोटा हुआ,



कल्पनाओं को भी अनुभव हुआ,



कि उनके आकाश की भी कुछ सीमा है.



अब वे भी कुछ बड़ी हो गई हैं,



तभी जगह कुछ छोटी पड़ी है.



फिर एक वक्त और आया,



जब कल्पना की भेंट वास्तविकता से हुई.



वास्तविकता का धरातल,



कल्पना को बार-2 खींचता,



अपनी तरफ,



और वो होना चाहती,



पहले की तरह स्वच्छन्द,



बस तभी से कल्पना और वास्तविकता में जंग छिड़ी है,



और दोनों ही धरातल पर बेसुध-सी पड़ी हैं...



तुम जो मिल जाते...

अचानक याद आ गयी तुम्हारी,


जब देखा एक बिलकुल तुम जैसी,

हाँ, बिलकुल तुम जैसी को.

वो भी तुम्हारी तरह ही मुस्कुरा रही थी,

ठिठक गया मैं भी एक पल को,

...जैसे लगा कि तुम वापस आ गयी हो,

फिर देखा कि वो तुम नहीं कोई और है,

और ये मेरी जिंदगी का दूसरा दौर है....

सोमवार, 17 जनवरी 2011

Corruption- The Blood Sucking Leech

When we talk about corruption it doesn't only mean taking bribe. corruption includes a whole lot of things within it's fold. When the moral of an individual is gone corruption intrudes. Well in the recent past we have seen an overflowing GDP never achieved before. great is our economist mastero Prime Minister Manmohan Singh who led the GDP to rise from ground to roof, reached up to sky would really be an exaggeration. However this GDP bound economic growth of the country brought many imminent leaders (Politicians) from all over the world to our doorsteps. What for, have you ever thought what compelled the strongest person of the earth say ' JAI HIND' . The person who publicized himself as the icon of change is now in serious trouble as his country is going through deep economic recession. So someone was at our door steps to beg and we being indians emerging from great cultural background could not refuse. Hmm...this really incites me and with proud I pat my back. But invain when I think about 2-G, CWG, Adarsh scam, etc,.

Corruption is that intruder, who with it's attractiveness and charisma can make you blind and fall in it's trap. So what if Raja and kalmadi are being blamed for the charges of corruption, they too are a victim of this sexy intruder. How can someone allege only them, when the whole system is corrupt. It's like a blood sucking leech which can't be removed by salt, because yet now no such salt is available on the market. Our culture ridden society has rapidly moved to the corruption ridden society. Voluminous sums of money have been involved in such scams which have not been consumed by any individaul but the whole section working for the purpose. Does it matter do people? Why are we making such a hue and cry on the inflation and the price rise and are quite on the matter of punishing the corrupts. The simple reason is we are one among them, among the blood sucking leech's. Don't the readers think this price is all because of these fradulent activities which claimed the hard earned money of the lower and middle section of the society.

Anyways, whenever, whereever you thought ill for others and tried to harm them you were not only being selfish but corrupt too. What conclusion can be drawn from such a boring discussion is that people will never speak against any atrocities being inflicted on them, simply because it doesn't matter to them. They have enough of blood and don't mind loosing some. concludingly, it doesn't matter because they don't care whatsoever.

गुरुवार, 2 दिसंबर 2010

तेरे बिना ये महफ़िल कुछ उदास लग रही है,
ला पिला दे साकिया अब प्यास लग रही हैं.

लगता हैं गुजरे हैं वो अभी-अभी इधर से,
शहर की गलियां देखिये कुछ ख़ास लग रही हैं.

गुरुवार, 25 नवंबर 2010

पड़ाव

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मंगलवार, 9 नवंबर 2010

115 glorious years of X-RAYS

Hundred and fifteen years ago when accidentally William Conrad Roentgen discovered some unknown radiations, he wouldn't have thought for a moment then of the explicit discovery he'd made.  He himself was so unaware of their significance  that he gave them the name X- Rays.  Years later it's importance was realized and it proved to be a revolution for mankind.  The ability of X-Rays to penetrate through substances and reveal their images has worked wonders for humanity.  Be it the revelation of inner structure of various crystals or the area of diagnostic radiography, it has proved to be a boon.  Despite of the emergence of various new and more advanced and sophisticated technologies X-Rays are still firmly holding their ground.  We are very grateful to Roentgen for his serendipity and the gift he gave us.

P.S. - Though now is the time to find out a better version of x-Rays to look into the souls of human beings.

शुक्रवार, 29 अक्टूबर 2010

बिल्लियाँ

जो चले गए !!!!

पिछले कुछ दिनों से हमारे घर में एक बिल्ली और उसके प्यारे से नन्हे से बच्चे ने डेरा डाल रखा है. कुछ महीने पहले भी वह बिल्ली अपने दो छोटे बच्चों के साथ आई थी.  तब माँ ने उनका बहुत ख्याल रखा था. उन्हें दिन में दो से तीन बार खाना देना आदि का माँ काफी ख्याल रखती थीं.  वो दोनों बच्चे थे भी बड़े चंचल और नटखट, दिन भर इधर से उधर फुदकते रहते थे.  धीरे-धीरे हमारी भी ऐसी आदत बन गयी थी कि उन्हें देखे बिना दिन पूरा नहीं होता था.  वो भी बड़े समझदार थे और हम लोगों को देखते ही अपनी कारगुजारियां शुरू कर देते थे.  गमले में पड़ी मिटटी खोद देना, पेड़ों पे चढ़ जाना, आपस में उठा-पटक करके वो हमारा ध्यान आकर्षित करने कि कोशिश किया करते थे.  उनकी माँ भी हमसे निश्चिंत होके धूप सका करती थी.  अभी हमारा रिश्ता खिल ही रहा था कि उसे किसी कि नज़र लग गयी और वो दोनों बच्चे एक-एक करके गायब हो गए.  हमने खोजने की बहुत कोशिश की पर वह नहीं मिले.  फिर एक दिन हमारे यहाँ काम करने वाली ने बाते की उसने उनमे से एक की लाश पीछे के मैदान में देखी है.  दूसरे का कुछ पता नहीं चला.  अभी हमारे मन पे पड़ी उनकी छाप हल्की हो ही रही थी की एक सुबह माँ ने एकदम से हमे उठाया और बोला की बिल्ली एक नए बच्चे को लेकर आई है.  माँ की ख़ुशी देखते ही बनती थी.  ये बच्चा पहले वाले दोनों बच्चों के मिश्रण जैसा है.  इसका फुर पे मानो उन दोनों की परछाईं पड़ी थी.  मासूम से चेहरे और कौतुक भरी नज़रों से उसने आते ही माँ का दिल जीत लिया था.  माँ ने इस बार देर ना करते हुए ज्यादा सुरक्षात्मक होकर उनके लिए एक छोटे से आशियाने का निर्माण कर दिया है.  इसमें वो ठण्ड से और अन्य परेशानियों से बचे रहेंगे.  माँ ने इस बार भी अपनी जिम्मेदारियां संभल ली है.  आशा करते हैं इस बार ईश्वर उस बच्चे को सुरक्षित रखेंगे. 


नयी दस्तक 

ज़िन्दगी

ज़िन्दगी हमेशा तंग रास्तों से होकर ही नहीं गुज़रती, कई फासले ये हरे भरे मैदानों  के बीच से भी तय करती है.  कुछ पल अगर चिलचिलाती धूप में जलना पड़ता है तो अगले पल बारिश कि नरम बूँदें भी मिलती हैं.  ज़िन्दगी के सफ़र कि इस कशिश ने ही तो हमे बाँध रखा है.  रोज़मर्रा कि दौड़-धूप, खिचखिच के बीच ख़ुशी का एक हल्का नरम झोका भी माथे कि लकीरों को एक  भीनी सी मुस्कान में बदल देता है.  इस भीनी सी मुस्कराहट के लिए हमें खासी मशक्कत भी नहीं करनी होती, बस कुछ आसपास देखना होता है.  मेजों कि दराजों में, पुरानी कमीज़ कि जेब में, फाइलों के ढेर में या ऐसी ही किन्हीं जगहों में जिन्हें हमनें बेकार समझ कोने में फेंक रखा है.  इनके अलावा खुशियों के ये झोके सुबह कि झीनी सी सिहरन ओढ़े हवा के संग, भोर के स्लेटी आसमान में फूटती किरण के संग, रात कि स्याही में चमकते चाँद के संग भी आतें हैं.  प्यार भरी माँ कि वो एक नज़र, आशीर्वाद के लिए उठा पिता का हाथ, भाई-बहिन का दुलार और दोस्तों का मनुहार हमारे मुरझाये चेहरे पे जान फूंक जाते हैं.  ज़िन्दगी कि इतनी सलाहितों के बाद भी गर हम उसे दोष देते हैं तो इसमें बेचारी ज़िन्दगी का तो कोई कुसूर नहीं है.

बुधवार, 27 अक्टूबर 2010

Jina isi ka naam hai

जब रास्ते खत्म होते नज़र आते हैं
एक नया मोड़ मिल जाता है
अँधेरे की घनी चादरों के बाद
एक नया सवेरा नज़र आता है

दिल के दरवाज़े जब बंद होते हैं
एक अंजनी दस्तक सुनाई देती है
जिंदगी के वीरान होने के बाद
फिर हरयाली दिखाई देती है

जब आंखें रोने को होती हैं
एक हाथ उन्हें थम लेता है
जिंदगी से मायूस होने के बाद
एक दुआ सुनाई देती है

प्यार भरी इस दुनिया में अकेलेपन का क्या काम है
जीओ खुल के हंस के खिलखिला के
क्यूंकी जीना इसी का नाम है

रविवार, 24 अक्टूबर 2010

दिल्ली में दिल नहीं लगता

शीर्षक देख कर पड़ने वालो को अंदाज़ा लग जायेगा की ये भुत ही निजी भाव है पर मेरा मानना है की इस से कम से कम एक बार दिल्ली आने वाला तो जरूर गुजरता होगा। आज मुझे दिली में आये दो महीने हो गये है पर अब तक दिली मुझे रास नहीं ई है। हो सकता है की इससे दिल्ली वाले नाराज़ हो जये की जो सहर रोटी दे रहा है उसी की बुरे मै कर रहा हूँ पर यह सच है मुझे तो दिल्ली नहीं भाई। कुछ दिनों में दीपावली है लोग कुशिया मानाने की तयारी कर रहे है पर लगता है की मज़बूरी में। पिछले दो साल मै बनारस में था हालाँकि दीपावली को मै अल्लाहाबाद आ जाता था पर वापस जाने के बाद दोस्तों के बिच असली दीपावली मानती थी। आकांशा शर्राफ के घर का काजू की बर्फी का तो सभी को इंतजार होता था। अब सभी को होता था तो मैकैसे छूट सकता हूँ मुझे भी इंतजार होता था। बात मिठाई की नहीं बल्कि उस मस्ती की है जो दिली में कही खो गयी है। इस लिया जैसे जैसे दिवाली पास आ रही है मेरा दिल बैठता जा रहा है। वैसे भी त्योहारों पर मै बहुत उत्साही प्रविर्ती का नहीं हूँ पर पिछले दो सालोमे त्योहारों मर हँसना और कुछ हद तक मनन तो सिख लिया तक जिसे मै छह साल पहले किन्ही कारणों से भूल गया था। कम से कम डिपार्टमेंट ले जाने के बहाने ही सही त्योहरोपर अपने पाक कला का मुजायरा तो कर ही देता था। पर इस बार तो ये मौका भी छुट जायेगा। इसे ही कहते है नौकरी यानि नौकर की नहीं चलेगी मर्ज़ी। खेर दिल्ली में फिलहाल तो रहना मजबूरी है। बस इस आस से दिन गिन रहे है की मार्च के बनारस हिन्दू उनिवेर्सित्य के धिख्संत समारोह में सभी फिर से एक बार मिलेंगे।ग़ालिब को रास आयी दिल्ली की गलियाँ ,कबीर को भाई कासी हमको तो बस मिल जाये सब साथी वोह है हमारी कशी.

शुक्रवार, 15 अक्टूबर 2010

यादों का एक पड़ाव...................

दशहरा मुब्बारक................................

एक बार कक्षा में मैंने छात्रावास को घर से दूर एक घर कहा था ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,, शायद कुछ लोगों को याद हो खासकर छात्रावास में रहने वालों को । ये सिर्फ मेरा कहना ही नहीं मानना भी था और अभी भी मानता हूं । मुझे याद hai shuruwaat के दिनों में जब मुझे हॉस्टल नहीं मिला था तब मैं अमित और विनीत के साथ रहता था अपने '' स्वतंत्रता कक्ष '' में । [शायद इस बात को सिर्फ बिरला वाले ही समझ सकते हैं ]

एक घर को छोड़कर दुसरे घर को सबने अपना बनाया । मेस में घंटो बात करते हुए खाना खाने का मज़ा शायद ही किसी पंच सितारे होटल में आये क्योंकि वहां सब कुछ मिल सकता है मगर वो साथ नहीं जो एक दुसरे के टांग खीचने में मिलता था। मगर अब हम एक कमरे में बैठ अकेले खाने को मजबूर हैं । अभी kuchh दिन pehle मैं हॉस्टल गया tha .हमारे जूनियर वहां रह rahe हैं । मैं उनके साथ वहां दो दिन रहा । शायद ही इन दो दिनों में कोई भी ऐसा मौका हो जब मैंने तुमलोगों को मिस ना किया हो । कमरा तो २२५ ही था मगर पता नहीं क्यों हॉस्टल बेगाना सा लग रहा था और कैम्पस विराना सा । विनीत ने ठीक ही कहा है कि अब वीटी कि वो चाय कि चुस्कियों का मजा कहीं नहीं मिल सकता है। चाय तो हम सभी अब भी पीते हैं मगर चाय का वो स्वाद जो वहां था अब कहीं नहीं। उन शर्तों को कौन भूल सकता है जो धीरज के चाय पिलाने पे लगते थे तो अमित के समौसा खिलाने पर [ क्षमा करना दोस्तों तुम लोगों का नाम मैंने किसी पूर्वाग्रह में आकर नहीं लिया है ] लगते थे और उन शर्तों को जीतने वाला कोई विरले ही थे। दूकान पर जाने से पहले ये बहस लाज़मी था कि आज पैसे कौन दे रहा है, मगर आज हालात ये है कि कोई है नहीं जिन्हें चाय पिलाया जाए या फिर किसी से समौसा खिलाने को कहा जाए। अब ना वो गलियाँ हैं ना ही वो राही हैं ।


ये जानकार काफी अच्छा लगता है कि हम में से बहुतों को नौकरी मिल गयी है और वो अपने काम में काफी व्यस्त हैं और हाँ इसी व्यस्तता का इंतज़ार हम सभी पिछले दो सालों से करते आ रहे थे। जिन लोगों को अभी तक नौकरी नहीं मिली है उन्हें भी आने वाले कुछ समय में मिल ही जाएगी और मैं भी इसी के इंतज़ार में हूं। ये काफी अछि बात है कि आज भी हम में से काफी एक दुसरे के सुख दुःख का साथी है और आगे भी रहेगा। हाँ अब ये जरूर है कि निर्मल सर का वो क्लास नहीं रहेगा जिसमे कितने ही message का aadan pradan हो jaata था। नोवेल तो हम अब भी पढ़ते हैं मगर कोई भी निर्मल वर्मा का '' वे दिन '' को शायद ही कोई भूल पाए आखिर पढने कि कला हमने वहीँ से सीखी थी। फिल्में तो हमने हजारों देखि हैं मगर फिल्म देखने कि कला भी आखिर यहीं सीखी है।


अच्छा दोस्तों मैं अभी जा रहा हूं मगर मैं अपने इस लेख को किसी और दिन जरूर पूरा करूँगा ...............................