शुक्रवार, 21 जनवरी 2011

कल्पना और वास्तविकता

कितना स्वच्छन्द, कितना उन्मुक्त था वह आकाश.




सपने तैरते थे, हजारों लाखों की संख्या में.



जैसे कि कल्पनाओं को पर लग गए हों.



धीरे-2 आकाश कुछ छोटा हुआ,



कल्पनाओं को भी अनुभव हुआ,



कि उनके आकाश की भी कुछ सीमा है.



अब वे भी कुछ बड़ी हो गई हैं,



तभी जगह कुछ छोटी पड़ी है.



फिर एक वक्त और आया,



जब कल्पना की भेंट वास्तविकता से हुई.



वास्तविकता का धरातल,



कल्पना को बार-2 खींचता,



अपनी तरफ,



और वो होना चाहती,



पहले की तरह स्वच्छन्द,



बस तभी से कल्पना और वास्तविकता में जंग छिड़ी है,



और दोनों ही धरातल पर बेसुध-सी पड़ी हैं...



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