आओ चलते है,
उन लम्हों के दरम्याँ,
जब एक ‘कट्टी’ से,
विराम लग जाता था,
दोस्ती पर,
और ‘मिट्ठी’ उस विराम को
कहीं दूर फेंक देती थी।
जब पन्नों के बीच,
मोर के पंख पाले जाते थे,
इस उम्मीद में,
कि ये दो के चार हो जाएँगे।
जब कच्ची अमिया,
जीते हुए कंचे,
सबसे बड़ी पूँजी होती थी।
जब पापा डाँट सकते थे,
बेझिझक,
और अम्मा दुलारती थीं।
चलें वहीं जहाँ आँखों में,
कुछ मासूम से सपने पलते है,
आओ चलते हैँ।
उन लम्हों के दरम्याँ,
जब एक ‘कट्टी’ से,
विराम लग जाता था,
दोस्ती पर,
और ‘मिट्ठी’ उस विराम को
कहीं दूर फेंक देती थी।
जब पन्नों के बीच,
मोर के पंख पाले जाते थे,
इस उम्मीद में,
कि ये दो के चार हो जाएँगे।
जब कच्ची अमिया,
जीते हुए कंचे,
सबसे बड़ी पूँजी होती थी।
जब पापा डाँट सकते थे,
बेझिझक,
और अम्मा दुलारती थीं।
चलें वहीं जहाँ आँखों में,
कुछ मासूम से सपने पलते है,
आओ चलते हैँ।
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