शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010

कुछ याद आया...

अब जब भी आइने में खुद को देखता हूँ,
अक्स कोई और होता है शख्स कोई और।

कहाँ गया वो भोलापन, वो सादगी, मासूमियत
कहाँ गए वो लोग जिनसे मिलती थी अपनी तबीयत
वो छोटा सा संसार मेरा, कहाँ गया वो प्यार मेरा
इन सवालों के जवाब कुदरत ये कहके देती है,
वो वक़्त कोई और था ये वक़्त कोई और।

जाने कहाँ गया वो गांव, वो गलियां,वो रास्ते,
गढ़ती थी कहानी दादीमाँ रोज मेरे वास्ते,
वो दोस्त मेरे गए कहाँ, जिनके बिन सूना था जहां,
इन सवालों के जवाब हसरत ये कहके देती है,
वो गांव कोई और था ये शहर कोई और।

कहाँ गया वो रूठना , वो मान जाना, मुस्कुराना
कहाँ गयी वो प्यारी सूरत दिल था जिसका दीवाना,
जाने कहाँ गया वो दौर, दिखता न था कोई और,
इन सवालों के जवाब चाहत ये कहके देती है,
वो धडकनें कोई और थीं, और दिल भी कोई और।

अब जब भी आईने में खुद को देखता हूँ,
अक्स कोई और होता है शख्स कोई और।











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