शुक्रवार, 11 नवंबर 2011

इस दिये में तेल से भीगी हुई बाती तो है


पिछले कुछ समय से चल रहे राजनीतिक ड्रामों को देखकर अब ये कहा जा सकता है कि भारतीय राजनेता मानसिक दीवालियेपन का शिकार हो चुके हैं। अब उन्हें जनता की समस्याओं से कोई सरोकार नहीं रहा। उनकी सारी उर्जा यात्राओं, एक-दूसरे पर लांछन लगाने और अपने आप को किसी भी कीमत पर पाक साफ साबित करते रहने में लग रही है। अब तो इन सबके बारे में इतना कुछ सुना जा चुका है, इतना कुछ देखा जा चुका है कि अब कोई घोटाला नहीं चौंकाता, इनकी कोई भी कारस्तानी अब तकलीफ नहीं देती। आम भारतीय जनता कष्ट झेलने की आदती हो गई है।

आजकल हमारे नेता और धर्मगुरू भी यात्राओं पर काफी जोर दे रहे हैं। हाँ, ऐसी यात्राएँ करके ये जनता की तकलीफें और बढ़ा ही देते हैं। जिस दिन इनकी यात्रा किसी शहर से गुजरती है, उस दिल वहाँ ट्रैफिक जाम लग ही जाता है। स्कूल जाते बच्चों और छोटी मोटी मजदूरी करके अपना पेट पालने वालों पर इन महानुभावों की यात्राओं का खासा असर पड़ता है। ये ठीक वैसी ही होती हैं जैसे कभी पुराने समय में राजा-महाराजा अपनी रियासत का चक्कर काटने निकलते रहे होंगे। ये आधुनिक समय के ‘राजाबस जनता की तबाही का मंजर देखते हैं और सोचते हैं कि इनको नोचने की और कितनी गुंजाईश बची है।

आम लोगों की बेबसी जब देखनी हो तो किसी सरकारी अस्पताल के जनरल वार्ड में या फिर रेल के जनरल अपार्टमेंट में आराम से देख सकते हैं। उनके लिए इन दोनों जगहों पर केवल थोड़ी सी जगह मिल जाए तो काफी है। हैरानी तो मुझे तब होती है जब इस हालत में भी इन्हें आमतौर पर खुश देखता हूँ। थोड़ी सी लेटने की भी जगह मिल जाए तो अपने आपको खुशनसीब समझते हैं। जबकि इनका ही खरबों रूपया स्विस बैंको में हमारे नेताओं ने जमा करा रखा है। पाँच साल गरियाने के बाद अगर नेताजी इनके खर का रूख करते हैं तो ये खुद को धन्य मानने लगते हैं। हजारों साल की दासता झेलने के बाद एक आम आदमी देश के निर्माण में अपनी भागीदारी के बारे में सोच भी कैसे सकता है?

रहा सवाल हमारे युवाओं का, तो इसमें भी दो वर्ग एक साथ दिखाई देते हैं। एक वो जिसके सामने सुनहरा भविष्य है और दूसरा वो जो बेरोजगारी के अँधियारे में अपनी उम्मीदों को टटोल रहा है। मेरे खयाल से अगर इस समय किसी का सबसे ज्यादा शोषण हो रहा है तो वो इस देश के युवा ही हैं। इनकी सबसे बड़ी त्रासदी यही होती है कि इन्होंने चमकदार भविष्य के ढेर सारे सपने सँजोए होते हैं। और जब ये सपने टूटते हैं तो कुंठा के रूप में जन्म लेते हैं। हमारे देश के ये नौजवान अगर संकल्प लें कुछ कर गुजरने का, इस देश के भाग्य को बदलने का, तो वो दिन दूर नहीं जब एक अभिनव भारत दुनिया के नक्शे पर होगा, जहाँ कोई शोषित नहीं होगा, जहाँ कोई शोषक नहीं होगा। जैसा कि कभी दुष्यंत कुमार ने कहा था...

इस नदी की धार से ठंडी हवा आती तो है
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है
एक चिंगारी कहीं से ढूँढ लाओ दोस्तो
इस दिये में तेल से भीगी हुई बाती तो है।

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