गुरुवार, 10 नवंबर 2011

जंजीरें....


वहाँ पेड़ों में जंजीरे बँधी थी,
लोहे की,
काफी मजबूत जंजीरें,
न जाने कौन बाँध गया था,
और क्यों?
मन को कुछ खटक रहा था,
क्यों कोई ऐसा करेगा?
ऐसे तो ये पेड़ उदास से दिखते हैं
चल दिया मैं अपनी राह।
खोया हुआ सा खुद में,
फिर एक रोज जाना हुआ उधर,
जंजीरों में तख्तियाँ लगी थीं अब,
और बच्चे झूल रहे थे,
उन झूलों पर,
गायब हो गयी थीं पेड़ों की उदासी,
और तभी कुछ बूढ़े नजर आये,
जंजीरों में बँधे हुए,
ठीक वैसे ही,
जैसे,
कभी पेड़ों में जंजीरे बँधी थी।

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