मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

एक सफर....

जाके कहाँ रुकेगा अनजाना-सा सफर ये।
मंजिल को ढूंढती है मुसाफिर की नज़र ये।

लगता कभी पास मंजिल , कभी दूर खड़ी है।
बुझते हैं अरमानों के दिये ये मुश्किल बड़ी है।
जाने कब होंगे पूरे ख्वाब इस राही के,
यही पूछे उसकी रूह अब हर घड़ी है।
खुदा की कठपुतली धरती का बशर ये।
मंजिल को ढूंढती है मुसाफिर की नज़र ये।

हमसफ़र मिलते हैं राहों में न जाने कितने।
बनते बिगड़ते रहते हैं अफ़साने न जाने कितने।
बरसों से लिख रहा है इक अफसाना ये दीवाना,
वैसे तो होंगे जहाँ में दीवाने न जाने कितने।
पांव ज़ख़्मी हैं फिर भी चलूँ है कैसा असर ये।
मंजिल को ढूंढती है मुसाफिर की नज़र ये।

हजार ख़्वाबों को इस राह पर सजाता रहा हूँ मैं,
यकीं के साथ हर कदम को बढ़ाता रहा हूँ मैं।
बुझते रहें हैं राह में अरमानों के दिये,
अक्सर इस उम्मीद में उन्हें जलाता रहा हूँ मैं।
कभी तो ख़त्म होगा अनजाना-सा सफर ये।
मंजिल को ढूंढ ही लेगी मेरी नज़र ये।




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